Book Title: Nigrahasthana Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 3
________________ २२७ पाते हैं कि पहिले तो उन्होंने न्याय परम्परा के निग्रहस्थानों का खण्डन किया और पीछे बौद्ध परम्परा के निग्रहस्थान लक्षण का । जहाँ तक देखने में श्राया है उससे मालूम होता है कि धर्मकीर्त्ति के लक्षण का संक्षेप में स्वतन्त्र खण्डन करनेवाले सर्वप्रथम कलङ्क हैं और विस्तृत खण्डन करनेवाले विद्यानन्द और तदुपजीवी प्रभाचन्द्र हैं । आचार्य हेमचन्द्र ने निग्रहस्थाननिरूपण के प्रसङ्ग में मुख्यतया तीन बातें पाँच सूत्रों में निबद्ध की हैं । पहिले दो सूत्र ( प्र० मी० २.१.३१, ३२ ) में जय र पराजय की क्रमशः व्याख्या है और तीसरे २.१.३३ में निग्रह की व्यवस्था है जो लङ्करचित है और जो अन्य सभी दिगम्बर- श्वेताम्बर तार्किक सम्मत भी है। चौथे २. १. ३४ सूत्र में न्यायपरम्परा के निग्रहस्थान- लक्षण का खण्डन किया है, जिसकी व्याख्या प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्तण्ड का अधिकांश प्रतिबिम्ब मात्र है । इसके बाद अन्तिम २. १. ३५ सूत्र में हेमचन्द्र ने धर्मकीर्ति के स्वतन्त्र निग्रहस्थान लक्षण का खण्डन किया है जो अक्षरश: प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० २०३ A ) की ही नकल है । इस तरह निग्रहस्थान की तीन परम्पराश्रों में से न्याय व परम्पराओं का खण्डन करके श्राचार्य हेमचन्द्र ने तीसरी जैन स्थापन किया है । मन्तव्य का अन्त में जय-पराजय की व्यवस्था सम्बन्धी तीनों परम्पराओं के रहस्य संक्षेप में लिख देना जरूरी है। जो इस प्रकार है— ब्राह्मण परम्परा में छल, जाति आदि का प्रयोग किसी हद तक सम्मत होने के कारण छला आदि के द्वारा किसी को पराजित करने मात्र से भी छल श्रादि का प्रयोक्ता अपने पक्ष की सिद्धि बिना किए ही जयप्राप्त माना जाता है । अर्थात् ब्राह्मण परम्परा के अनुसार यह नियम नहीं कि जयलाभ के वास्ते पक्षसिद्धि करना अनिवार्य ही हो । धर्मकीत्ति ने उक्त ब्राह्मण परम्परा के आधार पर ही कुठाराघात करके सत्यमूलक नियम बाँध दिया कि कोई छल श्रादि के प्रयोग से किसी को चुप करा देने मात्र से जीत नहीं सकता । क्योंकि छल आदि का प्रयोग सत्यमूलक न होने से वर्ज्य है । अतएव धर्मकीर्ति के कथनानुसार यह नियम नहीं कि किसी बौद्धसम्मत दो परम्परा का १ 'तत्त्वरक्षणार्थं सद्भिरुपहर्त्तव्यमेव छलादि विजिगीषुभिरिति चेत् नखच पेटशस्त्र प्रहारादीपनादिभिरपीति वक्तव्यम् । तस्मान्न ज्यायायानयं तत्त्वरक्षगोपायः । - वादन्याय पृ० ७१ । २ 'सदोषवत्त्वेऽपि प्रतिवादिनोऽशानात् प्रतिपादनासामर्थ्याद्वा । न हि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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