Book Title: Neminath evam Rajmati se Sambandhit Hindi Rachnaye
Author(s): Vedprakash Garg
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 7
________________ 20 वीं शती के ही विनयचन्द्र ने 'नेमजी को व्यावलो' एवं 'नेमनाथ बारह मासियां', खेतसी साह ने 'नेमजी की लूहरि', यतीन्द्र सूरि के सुयोग्य शिष्य विद्याचन्द्र सूरि ने 'भगवान् नेमिनाथ' नामक महाकाव्य, पं० काशीनाथ जैन ने 'राजीमती' एवं 'नेमिनाथ चरित्र' और दौलतसिंह अरविन्द ने 'राजी मति' नामक कृतियों की रचना की। आदर्श महासती राजुल ('मुनी महेन्द्रकुमार 'कमल') कणासिन्धु नेमि नाथ और पतिव्रता राजुल (नैन मल जैन,') नेमि राजुल संवाद (पं० गुलाबचन्द जैन) 'सती राजमती' (जवाहर लाल जी महाराज) आधुनिक समय की प्रसिद्ध रचनाएं है। कुछ अन्य रचनाओं का भी उल्लेख प्राप्त होता है किन्तु उनके संबन्ध में आवश्यक जानकारी का अभाव है। 'राजिल पचीसी' (आनन्द जैन कृत), 'राजुल पचीसा' (रचयिता अज्ञात), 'राजुलपच्चीसो' (रचयिता अज्ञात नि० का० सं० 1886), 'नेमनाथ जी के कड़े' (रचयिता अज्ञात), 'नेमिनाथ विवाहलो' (रचयिता अज्ञात), 'नेमनाथ ब्याहला' (मोहनलाल कृत), 'नेमनाथ राजमती मंगल' (जिनदास कृत लि. का० सं० 1806), 'नेमनाथ की धमाल' (गजानन्दकृत) आदि ऐसे ही ग्रन्थ हैं। इन रचनाओं के अलावा 'नेमिनाथ एवं राजुल' के विवाह-प्रसग को लेकर और भी कृतियों का रचा जाना संभाव्य है। उनकी भी खोज होनी चाहिए। साथ ही, इन रचनाओं के अतिरिक्त कुछ ऐसा रचनायें भी हैं, जो सीध नेमिनाथ एवं राजमती के चरित्र से तो संबन्धित नहीं हैं किन्तु उनमें प्रसंग-वश नेमिनाथ तथा राजुल के चरित्र का भी पर्याप्त उल्लेख हआ है / ऐसे ग्रन्थ 'पाण्डव पुराण', 'हरिवंश पुराण' तथा वरांग चरित्र, आदि की परम्परा में प्राप्त होते हैं। ये प्रासंगिक ग्रन्थ भी महत्त्वपूर्ण हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि नमीश्वर और राजुल के कथानक को लेकर हिन्दी के जनभक्त कवि विप्रलम्भ के उस स्वरूप को प्रकट करते रहे हैं जिसमें वैराग्य की प्रधानता है / उन्होंने हिन्दी जैन साहित्य में प्रेम की राति का निर्वाह इसी प्रसंग-विशेष को आधार बनाकर किया है, जो अपने में विलक्षणता से युक्त है। राससाहित्य एवं जनभाषा भारतीयरास साहित्य के मर्मज्ञ अध्येता डॉ० दशरथ ओझा के अनुसार राससाहित्य का निर्माण भारत के एक बड़े विस्तृत भू-भाग में होता रहा। आसाम से राजस्थान तक न्यूनाधिक एक सहस्र वर्ष तक इस साहित्य का सृजन साधुमहात्माओं एवं मेधावी कवि समाज द्वारा हुआ। वैष्णव संतों ने रास का संबंध कृष्ण और गोपियों से स्थापित किया और जैन मुनियों ने रास की रचना भगवान महावीर और उनके उपासकों के पावन-चरित्र के आधार पर की। रास साहित्य मे जनसाधरण के प्रयोग में आनेवाली भाषा को ही प्रमुखता दी गई है। डॉ० दशरथ ओझा के अनुसार तो जनभाषा में रचना करने वाले जैन मुनि संस्कृत प्राकृत और अपभ्रंश के परम विद्वान् होते हुए भी चरित्राकांक्षी बाल, स्त्री, मूढ़ और मों पर अनुग्रह करके जनभाषा में रचना करते थे। रासग्रन्थ उन्हीं जन-कृपालु सर्वहिताकांक्षी मुनियों और कवियों के प्रयास का परिणाम है। ____ डॉ० दशरथ ओझा के अनुसार रास साहित्य की भाषा, छंद एवं वर्ण्य विषय का अध्ययन हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ सकता है। उनकी दृष्टि में जन-साधारण की काव्य रूचि, उसकी भाषा के स्वरूप, उसके जीवन-विवेचन आदि का बोध कराने वाला यह प्रचुर साहित्य ज्यों-ज्यों प्रकाश में आता जायेगा, त्यों-त्यों हमारा साहित्य समृद्ध बनता जायगा। सम्पादक 'शील रासा' और 'चुनड़ीगीत' जैसी रूपकात्मक कतियों में भी नेमिनाथ-चरित्र को माध्यम बनाया गया है। यह एक रूपक गीताची (राजस्थान का विशेष वस्त्र) नामक उत्तरीय वस्त्र को रूपक बनाकर गीत-काव्य के रूप में रचना की जाती है। 'शील रासा में राजुम के माध्यम से शीन के महत्व का प्रतिपादन किया गया है। 156 भाचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन पन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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