Book Title: Naykumar Chariu ke Darshanik Mato ki Samiksha Author(s): Jinendra Jain Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf View full book textPage 2
________________ णायकुमारचरिउ के दार्शनिक मतों की समीक्षा १५१ तथा पर्याय से युक्त वस्तु द्रव्य कहलाती है। जीव, अजीव ( पुद्गल ) धर्म, अधर्म एवं आकाश द्रव्य को अस्तिकाय तथा काल द्रव्य को अनास्तिकाय के रूप में प्रस्तुत किया है। जीव को मोक्ष प्राप्त करने के लिए त्रिरत्न-सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र का आश्रय लेना अति आवश्यक है। जैनदर्शन के अनुसार आत्मविकास की १४ अवस्थाएँ होती हैं जिन्हें गुणस्थान कहते हैं। इन्हीं अवस्थाओं का क्रमिक विकास होने से आत्मा धीरेधीरे कर्मबन्ध से मुक्त होकर समस्तमलरहित, पूर्ण निर्मल या केवल ज्ञान की स्थिति में पहुँच जाता है, जिसे मोक्ष कहा गया है। सम्यक् दर्शन व ज्ञान को प्राप्त करने के बाद ही सम्यक् चारित्र की आराधना सम्भव है। इसके सकल और विकल दो भेद हैं। ५ महाव्रतों को (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह व ब्रह्मचर्य) पालने वाले मुनियों के चारित्र सकल हैं और विकल चारित्र वाले गृहस्थ पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत एवं चार शिक्षाव्रतों का पालन करते हैं। __ कवि इस जगत् की नश्वरता का अनुभव करते हुए संसार के प्रपंच को छोड़कर कहीं ऐसे स्थान पर जाने की कामना करता है, जहाँ न नींद हो, न भूख हो, न भोग-रति हो, न शारीरिक सुख हो और न नारी दर्शन हो । अर्थात् वह मोक्ष की कामना करता है। जैनधर्म संसार की प्रत्येक वस्तु में जीव-स्थिति मानता है। प्रत्येक श्रावक या गृहस्थ के लिए अणुव्रत का जो विधान है, उसमें अहिंसा को सर्वप्रथम स्थान दिया गया है। अहिंसक रहने के लिए यत्नपूर्वक मद्य, मांस, मधु आदि का त्याग तथा मूली, अदरक, नीम के पुष्प आदि का भी त्याज्य आवश्यक है। मनुष्य के आत्म विकास में जिस शक्ति के कारण बाधा उपस्थित होती है, उसे कर्म कहते हैं । कर्म का आत्मा से सम्पर्क होने पर जो अवस्था उत्पन्न होती है वह बन्ध कहलाता है। आत्मा का बन्ध करने वाले इन कर्मों के आस्रव को अवरुद्ध करने के लिए संवर की आवश्यकता होती है। संवर द्वारा समस्त कर्मों के आस्रव के द्वारों का निरोध करने पर नवीन कर्मों का प्रवेश रुक जाता है तथा पुराने कर्म क्रमशः क्षीण होते चले जाते हैं यही निर्जरा है और कर्मों का पूर्ण क्षय ही मोक्ष है। प्रस्तुत ग्रन्थ में जैनधर्म के विभिन्न सिद्धान्तों के वर्णन के साथ-साथ वैदिक, चार्वाक, बौद्ध एवं सांख्यदर्शन तथा अन्य भारतीय मिथ्या एवं दूषित धारणाओं पर कवि ने प्रश्न-चिह्न लगाये हैं । वैदिक धर्म की यज्ञप्रधान-धार्मिक क्रियाओं, चार्वाक दर्शन के भौतिकवाद, बौद्ध दर्शन के क्षणिकवाद व प्रतीत्यसमुत्पाद एवं सांख्यदर्शन के पुरुष व प्रकृति के सम्बन्ध आदि की समीक्षा पुष्पदन्त ने विभिन्न दलीलों और प्रमाणों के आधार पर की है। १. "गुणपर्यायवद् द्रव्यं"-तत्त्वार्थसूत्र, ५।३७ ५. णायकुमारचरिउ-१।१२।२ एवं महापुराण-८९।७।१-२ ३. णायकुमारचरिउ-९।१३।४ ४. णायकुमारचरिउ-१।१२।३ एवं महापुराण-१८७, ६।४।७ ५. णायकुमारचरिउ-१।११।१०-११ ६. समीचीनधर्मशास्त्र-४।१९ ७. णायकमारचरिउ-संधि ९, सम्पादक-डॉ० हीरालाल जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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