Book Title: Naychakra Sara
Author(s): Meghraj Munot
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpmala

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Page 139
________________ (१२०) नयचक्रसार हि० अ० एव आत्मा ततः सर्वविशेषाणां तदितराणां जीवाजीवादिद्रव्याणामादर्शनात् द्रव्यत्वादिनावान्तरसामान्यानि मन्वानस्तदभेदेषु गजनिमीलिकामवलम्बमानः परापरसंग्रह धर्माधर्माकाशपुद्गलजीवद्रव्याणामैक्यं द्रव्यत्वादिभेदादित्यादिद्रव्यत्वादिकं प्रतिजानानस्तदविशेषान् निन्हुवानस्तदाभासः यथा द्रव्यमेव तत्त्वं तव पर्यायाणाम् ग्रहणाद्विपर्यासः इति संग्रहः । अर्थ - संग्रहनय का स्वरूप कहते हैं. सामान्य मात्र, समस्तविशेष रहित सत्यद्रव्यादि को ग्रहण करने का स्वभाव है। और पिंडपने विशेष रासि को ग्रहण करता है परन्तु व्यक्तरूप से ग्रहण नहीं करता स्वजाति का देखा हुवा इष्ट अर्थ उसको अविरोधपने विशेष धर्म को एक रूप से ग्रहण करता है. उसको संग्रहनय कहते हैं. इस के दो भेद है ( १ ) परसंग्रह ( २ ) अपरसंग्रह : अशेषविशेषोदासीनं भजमानं शुद्धद्रव्यं सन्मात्रमभिमन्यमानः परसंग्रहः इति " जो समस्त विशेष धर्म स्थापना की भजना करता हुवा अर्थात् विशेषपने को अग्रहण करता हुवा शुद्ध द्रव्य की सत्ता मात्र को माने जैसे - द्रव्य यह परसंग्रह है. विश्व एक सपना है ऐसा कहने से अत्तिपने के एकत्व का ज्ञान होता है अर्थात् सव पदार्थ का एकत्वरूप से ग्रहण हो उसको संग्रह कहते है. । जो सत्ता का अद्वैत स्वीकार करते है और द्रव्यान्तर भेद नहीं मानते समस्त विशेष भाव को नहीं ग्रहण करके वस्तु को मानने वाले अद्वैतवादि वेदान्त, सांख्यदर्शनी परसंग्रह अभास है.

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