Book Title: Nayavad ki Mahatta Author(s): Snehlatashreeji Publisher: Z_Jayantsensuri_Abhinandan_Granth_012046.pdf View full book textPage 1
________________ [ नयवाद की महत्ता | (साध्वीश्री स्नेहलताश्रीजी) नयवाद जैन दर्शन का - जैन न्याय का महत्वपूर्ण अंग है। अनंत धर्म हैं, परंतु जब “यह गाय वह वस्तु को देखने की विविध दृष्टियाँ प्रस्तुत करता है, इतना ही लाल है" ऐसा जानते हैं, तब यह ज्ञान नहीं, परन्तु उनका समन्वय करने की भूमिका भी प्रदान करता है, अपना अभिमत एक विशिष्ट धर्म की और इस प्रकार मनुष्य को उदार, सहिष्णु एवं सत्पथगामी बनाने में ओर ले जाता है अत: वह नय है। बड़ा सहायक होता है। किसी भी एक अंश को ग्रहण नय क्या है? करना और शेष अंशों के प्रति जिनागमों में बताया है कि "द्रव्य के सभी भाव प्रमाण और उदासीनता रखना अर्थात् उनके संबंध नय द्वारा उपलब्ध होते हैं।" अर्थात् नय द्रव्य के सर्व भाव जानने में विरोधी या अनुकूल कुछ भी का - पदार्थ का यथार्थ स्वरूप समझने का एक साधन है। यह बात अभिप्राय न देना। तत्त्वार्थ सूत्र में "प्रमाणनयैरधिगमः" सूत्र द्वारा प्रकट की गई है। साध्वीश्री स्नेहलताश्री इस प्रकार वक्ता की ओर से जो यहाँ प्रश्न होने की संभावना है कि 'यदि पदार्थ का स्वरूप भी अभिप्राय प्रकट हो वह नय कहलाता है। प्रमाण के द्वारा जाना जा सकता है तो नय की क्या आवश्यकता है? उदाहरण से यह वस्तु स्पष्ट की जाएगी। ढाल के एक ओर इस का उत्तर यह है कि 'प्रमाण के द्वारा पदार्थ का समग्र रूप से चाँदी का झोल किया हुआ था और दूसरी ओर सोने का झोल था। बोध होता है और नय की सहायता से पदार्थ का अंश रूप से बोध यह ढाल गाँव के प्रवेश-स्थान में खड़े हुए एक पुतले के हाथ में होता है। थी। अब एक बार दो विभिन्न दिशाओं से दो यात्री उधर आ निकले ज्ञानप्राप्ति के लिये ये दोनों वस्तुएँ आवश्यक हैं। उदाहरण के और ढाल का निरीक्षण करके अपना अभिप्राय प्रकट करने लगे। एक लिये - गाय को देखने पर हमने यह जाना कि (१) यह गाय है। ने कहा कि 'यह ढाल चाँदी के झोल वाली है, अत: बहुत सुन्दर फिर उसके संबंध में विचार करने लगे कि (२) यह गाय रक्तवर्ण लगती है।' दूसरे ने कहा : 'यह ढाल चाँदी के नहीं परंत सोने के (३) शरीर से पुष्ट है (४) दो बछड़ोंवाली है (५) दूध अच्छा देती झोलवाली है, अतः सुन्दर लगती है।' प्रथम व्यक्ति ने कहा, 'तू अंधा है। और (६) स्वभाव से भी अच्छी है। तो इसमें प्रथम विषय का है इसी से चाँदी के झोलवाली ढाल को सोने के झोलवाली - बताता ज्ञान प्रमाण से हुआ और शेष पाँच विषयों का ज्ञान नय से हुआ। है।' दूसरे ने कहा, "तू मूर्ख है, इसीलिये सोने और चाँदी के बीच 'यह गाय है' ऐसा जाना, इसमें वस्तु का समग्ररूप से बोध है, अत: का अन्तर नहीं जान सकता। वह प्रमाण रूप है, और गाय रक्तवर्ण है शरीर से पुष्ट है, आदि जो इस प्रकार वाद-विवाद होते-होते बात बढ़ गई और वे लड़ने ज्ञान प्राप्त किया उसमें वस्तु का अंश रूप में बोध होता है- अत: को उद्यत हो गये। इतने में गांव के कई समझदार व्यक्ति उधर आ वह नय रूप है। पहुँचे और दोनों को शांत करते हुए बोले- “भाइयो! इस प्रकार जैन शास्त्रों में वस्त के समग्र रूप से बोध को सकलादेश और लड़न का क्या आवश्यकता है? तुम्हारे बीच जो मतभेद हो वह अंश रूप से बोध को विकलादेश कहते हैं, अतः प्रमाण सकलादेश हमसे कहो।” तब दोनों ने अपनी-अपनी बात कही। ग्रामवासियों ने है और नय विकलादेश है। कहा, 'यदि तुम्हारे लड़ने का कारण यही हो तो एक काम करो-एक दूसरे के स्थान पर आजाओ। उन दोनों ने वैसा ही किया तो अपनी "नय की व्याख्या" भूल समझ में आ गई और दोनों लज्जित हो गये। नय शब्द “नी" धातु से बना है। यह “नी" धातु प्राप्त करना, इस दृष्टांत का सार यह है कि वस्तु को हम जैसा देखते ल जाना आदि अथ प्रकट करता हा इसक आधार पर न्यायावतार हैं-मात्र वैसी ही वह नहीं है। वह अन्य स्वरूप की भी है। यह की टीका में श्रीसिद्धर्षि गणि ने नय की व्याख्या इस प्रकार की है अन्य स्वरूप हमारे ध्यान में न आए, मात्र इसीलिये हम उसका निषेध अनंतधर्माध्यासितं वस्तु स्वाभिप्रेतैकधर्मविशिष्टं = नहीं कर सकते। नयति-प्रापयति-संवेदनमारोहयतीति नयः ।। यदि निषेध करें तो यात्रियों जैसी स्थिति हो जाती है अर्थात् अनंत धर्मा के संबंधवाली वस्तु को अपने अभिमत एक विशिष्ट विचारों के संघर्ष में उतरना पड़ता है और ऐसा करने पर दोनों के धर्म की ओर ले जाय अर्थात् विशिष्ट धर्म को प्राप्त करवाए-बताये बीच देष पैदा होता है। वह नय कहलाता है। यदि यात्रियों ने इतना ही कहा होता कि 'यह ढाल रुपहरी है' एक वस्तु में भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से विभिन्न धर्मों का सम्बन्ध स विभिन्न धमा का सम्बन्ध 'यह ढाल सुनहरी है तो यह ज्ञान नयरूप होने से सच्चा होता और यह है और ऐसी अपेक्षाएं अनन्त हैं। जैसे-गाय में रक्तत्व, पुष्टता आदि श्रीमद् जयंतसेनसरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना ४३ अहं भरा हो हृदय में, नम्र भाव को दूर । जयन्तसेन दु:खद यही, जीवन में भरपूर ॥ www.finelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use OnlyPage Navigation
1 2