Book Title: Navtattva Author(s): Hemprabhashreeji Publisher: Z_Jain_Vidyalay_Granth_012030.pdf View full book textPage 3
________________ पुद्गल के चार भेद हैं स्कन्ध- परस्पर बद्ध प्रदेशों का समुदाय । देश-स्कन्ध का एक भाग । प्रदेश- स्कन्ध या देश से मिला हुआ द्रव्य का सूक्ष्म भाग । परमाणु- पुद्गल का सूक्ष्मतम अंश (परम. अणु) जिसका अन्य विभाग न किया जा सके। अन्धकार, छाया, प्रकाश, शब्द आदि पुद्गल की अवस्थाएँ हैं। पुद्गल सदा गतिशील रहता है और जीव से मिलकर तदनुसार गति प्रदान करता है। पुद्गल के चार धर्म हैं, जिसके निम्न भेद हैं स्पर्श (८) मृदु, कठिन, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध एवं रक्ष रस (५) तिक्त, कटु, अम्ल, मधुर, कपैला । गंध (२) सुगन्ध, दुर्गन्ध । वर्ण (५) नील, पोत, शुक्ल, कृष्ण, लोहित । २. धर्मास्तिकाय - जीव और पुद्गल द्रव्यों को गति करने में सहायक द्रव्य को धर्मास्तिकाय कहा जाता है। यह गति का प्रेरक नहीं, सहायक तत्व है । जिस प्रकार मछली के लिए जल सहकारी है उसी प्रकार धर्मास्तिकाय है। इसके तीन भेद हैं स्कंध, देश और प्रदेश ३. अधर्मास्तिकाय जीव और पुद्गल को गतिशीलता से स्थिर होने या ठहरने में सहायक द्रव्य को अधर्मास्तिकाय कहते हैं। इसके भी तीन भेद है स्कंध, देश और प्रदेश। ४. आकाशास्तिकाय जो सब द्रव्यों को अवकाश या आकाश देता है। इसके दो भेद लोकाकाश और अलोकाकाश हैं। लोकाकाश में सभी द्रव्य हैं परन्तु अलोकाकाश में केवल आकाश द्रव्य है। इसको भी स्कंध, देश और प्रदेश में विभाजित किया जा सकता है। ५. काल - जो द्रव्यों की वर्तना (परिवर्तन) का सहायक है, उसे काल द्रव्य कहते हैं। नए, पुराने, बचपन, जवानी आदि की पहिचान काल द्रव्य से होती है। काल अस्ति (सत्ता) तो है परन्तु बहुप्रदेशी न होने के कारण 'काय' रहित है अर्थात् अप्रदेशी है। जैनागमों में काल को विशेष रूप से निरूपित किया गया है जहाँ आज संख्याएँ दस शंख तक मानी जाती हैं, जैन शास्त्रों में उससे बहुत आगे तक वर्णित हैं। काल की सूक्ष्मतम इकाई 'समय' को माना गया है और आँख झपकने में असंख्यात समय व्यतीत होते हैं। समय से लेकर वर्ष तक काल की निम्नलिखित पर्यायें हैं ( समय सूक्ष्मतम इकाई) ४४४६ आवलिका : १ श्वासोच्छ्वास १ स्तोक १ लव १ मुहूर्त ७ श्वासोच्छ्वास ७ स्तोक ७७ लव विद्वत खण्ड / २० Jain Education International = (१,६७, ७७, २१६ आवलिका = १ मुहूर्त) ३० मुहूर्त १ दिन रात १५ दिन रात १ पक्ष २ पक्ष १ माह २ माह १ ऋतु ३ ऋतुएँ १ अयन १ वर्ष २ अयन जाता है। पुण्य के नौ भेद १. अन पुण्य २. पान पुण्य ३. ४. पुण्य जो आत्मा को शुभ की ओर ले जाए, पवित्र करे और सुख प्राप्ति का सहायक हो, पुण्य है। पुण्य शुभ योग से बन्धता है। पुण्य का फल मधुर है। इसे बाँधना कठिन है और भोगना सहज है। लयन पुण्य शयन पुण्य ५. वस्त्र पुण्य ६. मन पुण्य आत्मा की वृत्तियाँ अगणित हैं। अतः पुण्य-पाप के कारण भी अनेक हैं। शुभ प्रवृत्ति पुण्य का और अशुभ प्रवृति पाप का कारण बनती है। पुण्य नौ प्रकार से बाँधा जाता है और ४२ प्रकार से भोगा - ― मन का शुभ योग प्रवर्तन । = For Private & Personal Use Only = ७. ८. वचन पुण्य काय पुण्य ९. नमस्कार पुण्य पुण्य कर्म भोगने की वेदनीय के उदय से आयुकर्म के उदय से गौत्रकर्म के उदय से नामकर्म के उदय से - = अन्न दान । जल या पेय दान । स्थान या जगह देना । शय्या पाट, पाटला देना। वस्त्र दान | शुभ चिन्तन, गुणी जन को देख प्रसन्नता एवं शुभ - हितकारी वचन, मधुर वचन । शरीर द्वारा जीवों की सेवा आदि करना। गुणीजनों, गुरुजनों आदि का विनय व नमन । ४२ प्रकृतियाँ (१) साता वेदनीय सुख (३) देव मनुष्य तिर्यच आयु (१) उच्चगौ (३७) ---- = गति / जाति (३) मनुष्य गति, देव गति व पंचेन्द्रिय जाति । शरीर (५) औदारिक औदारिक (उदर) शरीर मनुष्य, पशु-पक्षी आदि। वैक्रिय- नानारूप शरीर बनाना देवता नारकी, जीव लब्धिधारी मनुष्य एवं तिर्यज्ञ भी। आहारक शरीर में से शरीराकार सूक्ष्म शरीर निकालना। तेजस - तपोबल से तेजोलेश्या निकालने की शक्ति । शिक्षा-एक यशस्वी दशक www.jainelibrary.orgPage Navigation
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