Book Title: Nastiko Vednindak kitna Sarthak
Author(s): Charitraprabhashreeji
Publisher: Z_Jayantsensuri_Abhinandan_Granth_012046.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 2
________________ यह समीक्षण किया जा रहा है कि वे किस हद तक 'वेदानुसारी' हैं, बतलाया गया है, और यह कहा गया है कि पुण्यक्षीण हो जाने पर या 'वेदनिन्दक' हैं। फिर मृत्यु लोक में आना पड़ेगा। प्राचीन आचार्यों में एक वर्ग 'वेदत्रयी' का समर्थक रहा है। यह दूसरे अध्याय का कथन तो विशेष उल्लेखनीय है। यह कथन, वर्ग 'अथर्ववेद' को वेद ही नहीं मानता था। मनुस्मृति भी इसी वर्ग श्रीकृष्ण के द्वारा अर्जुन के प्रति कहा गया है। कृष्ण कहते हैं - 'जो से सम्बन्धित है, यह सर्वविदित है। इस वर्ग में भी, यजुर्वेद से वेदों के वाक्यों में अनुरक्त हैं, वे, 'स्वर्ग' से भिन्न 'मोक्ष' मानते ही नहीं सम्बन्धित दार्शनिक/आचार्य सामवेद की, और सामवेदीय विद्वान् है। वे तो सिर्फ लोगों को लुभाने के लिये ही 'मोक्ष' की चर्चा करते यजुर्वेद की निन्दा करते रहे हैं। इसीलिये, मनुस्मृति ने सामवेद के हैं। इसलिये हे अर्जुन ! संसार में बांधकर रखने के लिये 'वेदत्व' को मान्यता देना तो दूर रहा, उसकी ध्वनि तक को अपवित्र तीन-लड़ियों वाली रस्सी की तरह, वेदत्रयी' को मानो और त्रिगुणातीत घोषित किया हुआ है। जब कि श्रीमद्भगवद्गीता में व्यास ने श्रीकृष्ण बनो" इतना ही नहीं, वे आगे और स्पष्ट कहते हैं - ‘परस्पर विरुद्ध के मुख से सामवेद को श्रेष्ठतम वेद कहलवाया है। इन उल्लेखों से वेदों के मंत्रों को सुनने से बुद्धि विचलित हो जाती हैं। किन्त, यह स्पष्ट है कि 'मनुस्मृति' स्वयं ही वेदनिन्दा में पीछे नहीं है। फिर, इसी विचलित-बुद्धि, जब भी आत्मा - (शुद्ध आत्मा-परमात्मा) में स्थिर के स्व-विरोधी कथन को प्रामाणिक कैसे माना जाये? और जब वेद बनेगी, तभी तुम 'समत्व' योग को प्राप्तकर पाओगे।" ही परस्पर एक-दूसरे की निन्दा करते हों. तो वेद-निन्दा को नास्तिकता गीता में इस प्रकार वेदों की मुक्ति-हेत्ता का खण्डन करके, और का आधार कैसे माना जाये? उनकी सांसारिकता को स्पष्ट करके, वेदासिद्धान्तों का समर्थन नहीं कुछ उपनिषत्कार तो खुल्लमखुल्ला वेद के सिद्धान्तों का खण्डन किया है, बल्कि, उनका खण्डन करके, निन्दा ही की है। इस मनु की करते हैं और उन्हें निस्सार घोषित करते हैं / जैसे, ऋग्वेद, यज्ञक्रिया परिभाषा के अनुसार व्यास का समादर भी 'नास्तिक' श्रेणी के दार्शनिकों के समर्थन में कहता है - 'जो पुरुष यज्ञरूपी नौका मे न चढ़ सके वे द्वारा किया जाना चाहिए। कुकर्मी हैं, नीच अवस्था में पड़े हुए हैं ' इस कथन का उत्तर देते हुये दश-अंगिराओं में 'कपिल' की प्रधानता को ऋग्वेद भी स्वीकार मुण्डकोपनिषत् कहती है - 'हे वेद ! तुम्हारी यह नौका तो जीर्ण-शीर्ण करता है। 12 इससे यह स्पष्ट होता है कि ऋग्वेद के रचना काल में हो गयी है। वैसे भी, यह पत्थरों से बनी हुई है। इसलिये, तुम्हारे कपिल का प्रभाव इतना अधिकाधिक है कि उससे प्रभावित होकर जैसे मूर्ख ही इसे कल्याणकारी मानते हुए आनन्दित होते होंगे ।जो ऋग्वैदिक आचार्यों ने उनका स्मरण भी विशेष सम्मान के साथ किया इस संसार-सागर में डूबते-तैरते हुए जन्म-जन्मान्तरों में भटकते रहते है। किन्तु, वही कपिल, महाभारत के शान्ति पर्व के 268 वें अध्याय हैं।' इसी उपनिषद् में चारों वेदों को 'अपरा विद्या' कहकर, उनकी में 'गो-सम्वाद' के समय, घोषणा करता है - 'हिंसायुक्त धर्म, यदि सांसारिकता बतलाई है। अन्य अनेकों स्थलों पर भी ऐसी ही बातें ___वेदसम्मत भी हो, तो भी, वह 'धर्म' का दर्जा प्राप्त करने लायक नहीं कहीं गई है। जिनसे ज्ञात होता है कि 'वेद मुक्तिदाता हैं' इस कथन है। उसने वेदसम्मत यज्ञों के विभेद में प्रचार भी किया था। की, और उनके क्रियाकाण्डों की भी निन्दा उपनिषत्कारों ने की है। इस प्रकार हम देखते है कि वैदिक ऋषियों में भी पारस्परिक अत: उपनिषत्कारों को भी नास्तिक माना जाना चाहिए। विरोध प्रबल है। वे एक दूसरे की निन्दा भी खुले रूप में करते हैं। व्यास, वेद-सिद्धान्तों की विवेचना करने में अग्रणी हैं, यह इस स्थिति में किस ऋषि को 'आस्तिक' और किस ऋषि को 'नास्तिक' आस्तिक-दार्शनिकों की मान्यता है। किन्तु, श्रीमद्भगवद्गीता के माना जाये? यह प्रश्न उठ खड़ा होता है / इस किंकर्तव्यविमूढ़ता की अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि वेदों को सांसारिकता का कारण, स्थिति में, जैनदर्शन को 'नास्तिक' श्रेणी में, और व्यास आदि को और मुक्ति देने में असमर्थ, जितनी प्रबलता से व्यास ने उद्घोषित 'आस्तिक' श्रेणी में रख दिया गया हो इस पर आश्चर्य नहीं करना किया है, वैसी घोषणा दूसरों के द्वारा कहीं नहीं की गई। उदाहरण के चाहिए। इसलिए, यह मान्यता - 'वेदनिन्दक नास्तिक है' - एक व्यर्थ लिये गीता का अठारहवां अध्याय देखें। इसमें 'शुक्ल' और कृष्ण' का कथन जान पड़ती है। अत:, सुधी जनों को चाहिए कि वे इस गतियों का कथन किया गया है। इसी स्थल पर, वेद, यज्ञ और विषय में कोई निर्दोष - मान्यता स्थापित करें, और तब, भारतीय दर्शनों तपस्या में निहित फल की सारहीनता का स्मरण दिलाते हुए, वद आदि का वर्गीकरण आस्तिक-नास्तिक वर्गों में सनिश्चित करें। सामायिक के पठन को 'कृष्णमार्ग' बतलाया गया है / ग्यारहवें अध्याय में स्पष्ट सन्दर्भो में, इस तरह का निष्पक्ष चिन्तन हो तो, समाज को सही दिशा कहा गया है कि वेद, न तो पर ब्रह्म की प्राप्ति में सहयोगी हैं, न ही देने में सार्थक भूमिका निभा पायेगा। मुक्ति दिलाने में साधक हैं। नवम अध्याय में वेदों का फल 'स्वर्ग' मधुकर मौक्तिक जैन सिद्धांत में प्रार्थना के अन्तर्गत भावरमणता का परिचय करानेवाले 'जय वीयराय सूत्र में आत्म प्रबोध एवं प्रबुद्धता की उद्घोष-ध्वनि स्पष्ट दिखाई देती है। इसमें भाव का महत्त्व एवं आलंबन तथा आलंबक की गुरुता-लघुता का नैसर्गिक चित्रण आलेखित है। प्रार्थना के समय ज्यों ज्यों दृढ चित्तावस्था-एकाग्रता वृद्धिगत होती जाती है, त्यों त्यों सद्भावों की सरिता भी प्रवाहित होती जाती है। यह सद्भाव सरिता दुर्भावना की बीहड़ अटवी को भी प्लावित करके हरी भरी बना देती है। श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना 72 'आ' से मर्यादा कही, 'ज्ञा' से करलो ज्ञान / जयन्तसेन सुखी सदा, रहता आज्ञावान // www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 2