Book Title: Nari Shiksha ka Lakshya evam Swarup Author(s): Vidyabindusinh Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 1
________________ नारी शिक्षा का लक्ष्य एवं स्वरूप [C] डॉ० (श्रीमती) विद्याबिन्दु सिंह ५१३ डी २] मम्फोर्डगंज इलाहाबाद ( उ०प्र०) नारी हो या नर मानव-जीवन का चरम लक्ष्य है अपने दायित्वों का समुचित निर्वाह करते हुए जीवन में सफलताओं की उपलब्धि । यह उपलब्धि और क्षमता देती है शिक्षा । यह सत्य है कि देश, काल और व्यक्ति के स्वभावानुसार लक्ष्य भिन्न-भिन्न होते हैं। नारी का महत्व नर से अधिक स्वीकार करने वाले उसने दो मात्राओं की अधिकता के साथ ही उसके कत्तं व्य-क्षेत्र को भी अधिक बड़ा बताते हैं। यह नर की जननी है, सहयामिनी है, संरक्षिका है, उपासिका है। वह विभिन्न सम्बन्धों के माध्यम से नर के सुख के साधन जुटाकर ही सन्तुष्ट होती है । आर्य संस्कृति में नारी अर्द्धाङ्गिनी होने के साथ ही पूजनीय भी है यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः । यतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्ताफलाक्रियाः ।। आर्य पुरुषों ने केवल शाब्दिक सद्भावना का प्रदर्शन ही नहीं किया था वरन् उस युग में नारी को पुरुष के समान ही शिक्षा प्राप्त करने का यज्ञ में भाग लेने का अधिकार था। वैदिक शब्द 'दम्पती' आज भी इसी ओर संकेत करता है कि नारी और पुरुष एक ही घर के समान भागीदार हैं। हमारे यहाँ अर्द्धनारीश्वर के रूप में ईश्वर की कल्पना की गई है। वैदिक युग में हवनकुण्ड की पहली ईंट पत्नी ही रखती थी। विद्वानों और बेवकों में उसका नाम यश था । गृहकार्य में कुशलता, धनुष-बाण, टोकरियाँ बनाने और वस्त्र बुनने की शिक्षा उन्हें बचपन से ही मिलती थी । 'समन' नामक त्यौहार पर लड़के लड़कियाँ एक दूसरे को देखते, पसन्द करने और जीवन साथी के रूप में चुनते थे । स्त्रियों को तलाक, विधवा विवाह का अधिकार भी था। स्वेच्छा से वे विधवा जीवन भी बिता सकती थीं । पर्दाप्रथा नहीं थी । Jain Education International मातृशक्ति की उपासना माँ के महत्त्व को स्पष्ट करती है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में नारी के सोलह प्रकार के मातृरूपों की ओर इंगित किया गया है www स्तनदात्री, गर्भदात्री, भक्ष्यदात्री गुरुप्रिया । अभीष्टदेवपत्नी च पितुः पत्नी च कन्यका ॥ सगर्भजा या भगिनी, पुत्रपत्नी प्रिया प्रसूः । मातुर्माता, प्रितुर्माता सोदरस्य प्रिया तथा ।। For Private & Personal Use Only +8 www.jainelibrary.orgPage Navigation
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