Book Title: Nanya Panthvidyetyanay
Author(s): Indrasen Sinh
Publisher: Z_Jain_Vidyalay_Hirak_Jayanti_Granth_012029.pdf

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Page 3
________________ हैं। केवल यही कल्याण-प्राप्ति का एक मात्र हेतु है। अतः आप इसी का उपदेश दें। जब किसी विषय को नहीं बतलाना होता तो सबसे पहले उसकी कठिनता का भय दिखलाया जाता है। परीक्षा के लिए यमराज ने भी यही किया, किन्तु इस परीक्षा में नचिकेता उत्तीर्ण हो गया। अत: अबकी बार उन्होंने उसकी और भी कठिन परीक्षा लेनी चाही। साधक अथवा जिज्ञासु की परीक्षा के लिए दो ही शस्त्र होते हैं- एक भय और दूसरा लोभ । नचिकेता भय से तनिक भी विचलित नहीं हुआ। इसलिए यमराज ने उसके ऊपर दूसरा शस्त्र लोभ का प्रयोग करते हुए उसे सौ-सौ वर्ष जीने वाले पुत्र-पौत्र, गौ आदि बहुत से पशु, हाथी, घोड़े, स्वर्ण और भूमण्डल का विशाल साम्राज्य तथा इन्हें भोगने के लिए जितने वर्ष जीने की इच्छा हो उतने वर्षों की आयु मांग लेने को कहा अथवा जो-जो भोग मृत्यु लोक में दुर्लभ है उन्हें तथा उन सुन्दरियों को भी मांग लेने को कहा जो मृत्यु लोक में नहीं प्राप्त हो सकतीं। परन्तु नचिकेता के ऊपर यमराज के इन प्रलोभनों का तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ा, क्योंकि वह विचार और वैराग्य की उस उच्च स्थिति पर पहुंच चुका था जहां पहुंच जाने पर साधक को किसी प्रकार का प्रलोभन डिगा नहीं पाता। इसी से उसने यमराज से कहा- 'हे मृत्यो! आपने जिन भोग्य पदार्थों का वर्णन किया है वे कल तक रहेंगे अथवा नहीं, इसमें भी सन्देह है। ये अप्सरा आदि भोग तो मनुष्य की सम्पूर्ण इन्द्रियों के तेज को ही क्षीण कर देते हैं। अत: धर्म, वीर्य, प्रज्ञा, तेज और यश आदि का क्षय करने वाले होने से ये अनर्थ के ही कारण हैं। यह दीर्घ जीवन । भी अनन्त काल की तुलना में बहुत ही कम है। जब ब्रह्मा का जीवन भी अल्पकालिक है, तब औरों की बात ही क्या ?' 'इस धन से मनुष्य की तृप्ति नहीं होती, क्योंकि जहां केवल कामनाओं का ही विस्तार है वहां तृप्ति कैसी? और जब मैं आप को देख ही चुका हूं तो जब मुझे धन की लालसा होगी तब उसे प्राप्त ही कर लूंगा। इसी प्रकार जब तक आप शासन करते रहेंगे तब तक तो मैं जीवित भी रह सकता हूं। अतएव 'वरस्तु मे वरणीय: स एव'- मैं तो वही आत्मतत्व वाले प्रश्न को ही जानना चाहूंगा। भला अजर और अमर देवताओं के समीप पहुंच कर जरा और मृत्यु से ग्रस्त कौन ऐसा मनुष्य होगा, जो अस्थिर और परिणाम में दुखदायी विषयों की इच्छा करेगा। अत: इस आत्म-तत्व सम्बन्धी वर के गूढ़ होने पर भी नचिकेता दूसरा अनित्य वर प्राप्त करने की इच्छा नहीं रखता। यमराज ने नचिकेता की भलीभांति परीक्षा लेकर जब यह समझ लिया कि वह परम वैराग्यवान निर्भीक तथा उत्तम अधिकारी है तब उन्होंने ब्रह्म-विद्या को प्रारंभ करने से पहले उसके महत्व पर प्रकाश डालते हुए 'श्रेय और प्रेय' के सम्बन्ध में समझाया। श्रेय मनुष्य के वास्तविक कल्याण मोक्ष को कहते हैं और प्रेय स्त्री-पुत्र, धन-मानादि प्रिय लगने वाले पदार्थों का नाम है। ये दोनों मनुष्य के समक्ष अपने-अपने प्रयोजनों के साथ उपस्थित हो, उसे बांधने का प्रयास करते हैं। इन दोनों में से जो श्रेय को ग्रहण करता है, उसका तो कल्याण (मोक्ष) होता है और जो प्रेय को ग्रहण करता है, वह सांसारिक भोगों तथा धन-मानादि में फंसकर अपने पुरुषार्थ से भ्रष्ट हो जाता है। इनमें से मनुष्य किसी को भी ग्रहण कर सकता है। बुद्धिमान पुरुष तो श्रेय और प्रेय दोनों के गुण-दोष को भली प्रकार समझ कर श्रेय का ग्रहण और प्रेय का त्याग कर देते हैं, किन्तु मूढ़ लोग योग-क्षेम (प्राप्त स्त्री-पुत्र, धन आदि की रक्षा और अप्राप्त भोग्य-पदार्थों की प्राप्ति) के लिये प्रेय को ही ग्रहण करते हैं। परन्तु यमराज के द्वारा बार-बार प्रलोभन दिये जाने पर भी नचिकेता ने प्रिय लगने वाले सांसारिक विषयों को हेय समझ कर त्याग दिया। इससे वह उस निकृष्ट गति को नहीं प्राप्त हुआ, जिसमें प्राय: बहुत से 'विद्या' का अधिकारी समझ कर उसकी प्रशंसा की, क्योंकि उसे बहुत से भोग भी नहीं लुभा सके। अविद्या में पड़े हए भी जो लोग अपने को बहुत बड़ा पण्डित मानते हैं, वे भोगी मूढ़ जन अंधे से चलाये हुए अन्धों की तरह चारों ओर ठोकरें खाते हुए भटकते फिरते हैं। यमराज आगे कहते हैंन साम्परायः प्रति भाति बालं, प्रमाद्यन्तं वित्त मोहेन मूढः । अयं लोको नास्ति पर इति मानी, पुनः पुनर्वशमापद्यते मे।। 'धन के मोह से मोहित, प्रमाद में रत रहने वाले मूर्ख को परलोक या कल्याण का मार्ग दिखाई ही नहीं देता। वह तो केवल यही मानता है कि स्त्री-पुत्रादि से भरा हुआ एक मात्र यह लोक ही सत्य है। इसके अलावा कोई परलोक है ही नहीं। ऐसा मानने वाला पुरुष बारम्बार जन्म लेकर मृत्यु को प्राप्त होता रहता है।' परन्तु यह आत्म-ज्ञान कोई साधारण-सी बात न होकर अत्यन्त दुर्लभ वस्तु हैश्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः, शृण्वन्तोऽपि बहवो यं न विद्युः आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धा, आश्चर्योज्ञाता कुशलानुशिष्टः ।। 'जगत में अधिकांश मनुष्यों को इस आत्म-तत्व की चर्चा भी सुनने को प्राप्त नहीं होती। बहुत से लोग इसे सुनकर भी समझ नहीं पाते। इस गूढ आत्म-तत्व का वर्णन करने वाला महापुरुष आश्चर्यमय अर्थात् दुर्लभ होता है। इस आत्मा को प्राप्त (जानने वाला) करने वाला भी कहीं कोई एक निपुण पुरुष ही होता है। इसी प्रकार किसी आत्मदर्शी आचार्य द्वारा उपदेश पाकर उसके अनुसार मनन-निदिध्यासन करते-करते तत्व का साक्षात्कार करने वाले पुरुष भी आश्चर्यजनक ही होते हैं। _ 'यह आत्म-तत्व अल्पज्ञ मनुष्य द्वारा समझाये जाने पर तनिक भी समझ में नहीं आता, क्योंकि यह सूक्ष्म से भी सूक्ष्म होने के कारण सर्वथा अतयं है। इसी से सामान्य व्यक्ति के समझाये जाने पर, यदि कोई उसका विविध प्रकार से चिन्तन और मनन भी करता है तब भी वह समझ में नहीं आता। अत: जब तक इसे यथार्थ रूप से समझाने वाला कोई आत्म-दर्शी महापुरुष नहीं प्राप्त होते, तब तक मनुष्य का इसमें प्रवेश पाना अत्यन्त कठिन होता है। इसे तर्क से भी प्राप्त नहीं किया जा सकता।' नचिकेता की प्रशंसा करते हुए यमराज कहते हैं कि उन्हें उसकी अनन्य निष्ठा को देखकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई है, क्योंकि यह निष्ठा तर्क से कभी नहीं मिल सकती। यह तो भगवत्कृपा के फलस्वरूप हीरक जयन्ती स्मारिका अध्यापक खण्ड / १९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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