Book Title: Namaskar Mahamantra Vaigyanik Drushti Author(s): Rajimatishreeji Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf View full book textPage 1
________________ नमस्कार महामन्त्र : वैज्ञानिक दृष्टि -साध्वी श्री राजीमती जी (योग, ध्यान अध्यात्म-विषयों की प्रख्यात विदुषी, अनेक भाषाओं की ज्ञाता) नमस्कार महामन्त्र आकार में बहुत छोटा है, परन्तु उपलब्धियों तथा संभावनाओं का खजाना है । मौलिकता यह है कि मन्त्र चाहे जो भी हो वह जीवन से जुड़ना चाहिये। जब तक मन्त्र जीवन से, जीवन की आस्थाओं से नहीं जुड़ता तब तक वह “जीवन्त मन्त्र" नहीं बनता। वह जीवन्त बनता है मनोयोगपूर्वक ध्यानासन में बैठकर निष्काम भाव से जपने से तथा विशाल आकाश में चमकते वर्गों में मन्त्र को लिखकर पढ़ने से । ध्यान और रंगों की भाषा शब्द शक्ति से बहुत आगे जाती है। ध्वनि का भी स्वतन्त्र प्रभाव होता । है। मन्द, तेज, मृदु और कठोर सबका अपना हिसाब है। मन्त्र ध्वनि ही एक ऐसा साधन है जो जगत से बँधे मन को काटकर बन्धन मुक्त कर सकता है। वैज्ञानिक परीक्षणों के अनुसार सूक्ष्म ध्वनि तीव्र छेदक होती है। यह जैनों का सार्वभौम मांगलिक मन्त्र, संप्रदायवाद की सभी कट्टरताओं से दूर, जैनएकता का प्रभावी सूत्र है । यह अलौकिकता की ओर ले जाने वाला मन्त्र है। अगर उससे कोई पुत्र माँगता है, संपत्ति मांगता है तो वह महान भूल करता है, मन्त्र की आशातना करता है । इससे करनी चाहिये केवल आत्मोन्नयन की मांग क्योंकि मन्त्र-जाप की प्रथम उपलब्धि है आत्मशक्ति का संचय जिससे प्राप्त होता है, बुद्धि बल विवेक, हिम्मत तथा व्यवहार का कौशल । एक दिन स्वामी रामकृष्ण ने विवेकानन्द से कहा-माँ से कुछ माँग क्यों नहीं लेते ? विवेकानन्द ने कहा-गुरुदेव ! मैं जाते समय कुछ जरूर सोचता हूँ, परन्तु प्रार्थना में बैठने के बाद मांगने की बात बिल्कुल भूल जाता हूँ। उस स्तर पर पहुँचने के बाद कोई कामना शेष नहीं रहती, मगन हो जाता हूँ। भीतर से भर जाता हूँ । रामकृष्ण बोले-वत्स, तेरी प्रार्थना सिद्ध हो गई। मन्त्र का जाप व्यक्ति को संसार के प्रति, संसार के कर्तव्यों के प्रति जागरूक करता है। बिखरी चित्तशक्तियों को एकाग्र करता है । आवश्यक है, हम मन्त्र विज्ञान को समझें । मन्त्र की महिमा गाने से मन्त्र सिद्ध नहीं होता, मन्त्र सिद्धि के लिए चाहिये-मन्त्र-रचना का, मंत्र-शरीर का, मन्त्र की ध्वनि और स्वरों का पूरा ज्ञान ।। णमो अरिहन्ताणं में हम वीतरागता की वन्दना करते हैं, फिर क्रमशः अनन्तता, समाधि सम्पन्नता, ज्ञान सम्पन्नता तथा साधुओं की वन्दना करते हैं । जैन दर्शन व्यक्ति-पूजा का दर्शन नहीं बल्कि गुण-पूजा का दर्शन है । वन्दना करते समय हमारा ध्यान किसी मूर्ति, अरिहन्त-देह तथा अरिहन्त-पद पर नहीं होकर "अरिहन्तत्व" पर होना चाहिये। ( ७० ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education InternationalPage Navigation
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