Book Title: Naksho me Dashkaran
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 12
________________ ५अरब सम्यग्मिथ्यात्व ६ अपकर्षण कर्मप्रदेशों की स्थितियों के अपवर्तन का नाम अपकर्षण है। अपकर्षण के द्वारा कर्मों की स्थिति और अनुभाग क्षीण हो जाते हैं। स्थिति-अनुभाग के घटने का नाम अपकर्षण जानना। • यथा २१वें समय में दस हजार (१०,०००) कर्म परमाणु हैं। जीव के विशेष परिणामों के कारण उन दस हजार परमाणुओं में से एक हजार कर्म परमाणु १६वें समय से लेकर पहले समय पर्यंत के सभी समयों के कर्म-परमाणुओं में डाले जाते हैं, उसे अपकर्षण कहते हैं। जीव के विशेष परिणामों के निमित्त से पूर्वबद्ध कर्मों (सत्त्वकरण में स्थित कर्मों) की स्थिति एवं अनुभाग घटते हैं, उसे अपकर्षण कहते हैं। • अपकर्षित कर्म-द्रव्य उदयावली के बाहर (उपरिम र भाग में) ही डाला जाता है। । यदि अपकर्षित द्रव्य उदयावली में डाला जायेगा तो उसे उदीरणा नाम प्राप्त होता है। अपवर्तन के समय उस कर्म के नवीन बंध की जरूरत नहीं होती। विवक्षित निषेक का अपकर्षण होने पर वह संपूर्ण निषेक समाप्त होना अनिवार्य नहीं है; किन्तु उस निषेक के कुछ परमाणु ही अपकर्षित करके नीचे की स्थितियों में दिये जाते हैं। • प्रति समय में जितना द्रव्य नीचे निक्षिप्त किया जाता है, उसे फाली कहते हैं। • आदि स्पर्धक का अपकर्षण नहीं होता। • Aamph 00०093om.००0930mra. 1111111111111111111 ।।।।।। ।।।।।। ७. संक्रमण विवक्षित कर्म प्रकृतियों के परमाणुओं का सजातीय अन्य प्रकृतिरूप परिणमन होने को संक्रमण कहते हैं। जैसे - विशुद्ध परिणामों के निमित्त से पूर्वबद्ध असाता वेदनीय कर्म प्रकृति के परमाणुओं का साता वेदनीयरूप तथा संक्लेश से साता वेदनीय कर्म के परमाणुओं का असाता वेदनीयरूप परिणमन होना। । इसमें भी इतनी विशेषता है कि १. मूल प्रकृतियों में परस्पर संक्रमण नहीं होता। २. चारों आयुओं में आपस में संक्रमण नहीं होता। ३. मोहनीय का उत्तरभेदमिथ्यात्व दर्शनमोहनीय का चारित्रमोहनीय में सम्यक्प्रकृति संक्रमण नहीं होता। ४. दर्शनमोहनीय अविभाग ५० अविभाग के भेदों में एवं चारित्रमोहनीय कर्म के प्रतिच्छेद | प्रतिच्छेद |भेदों में परस्पर संक्रमण होता है। • इसका भावार्थ यह है कि मिथ्यात्व कर्म का संक्रमण, सम्यग्मिथ्यात्व कर्म में होता है। सम्यग्मिथ्यात्व कर्म सम्यक्प्रकृति में संक्रमित/ परिवर्तित होता है और सम्यक्प्रकृति कर्म, स्वमुख से उदय में आकर दर्शनमोहनीय कर्म पूर्णरूप से नष्ट होता है। उसी तरह चारित्रमोहनीय कर्म की भी अनन्तानुबंधी चौकड़ी अन्य १२ कषाय एवं ९ नो-कषायों में संक्रमित (विसंयोजित) होती है। (विसंयोजन होना एक प्रकार से संक्रमण ही है।) संज्वलन क्रोध, मान में बदलता है। मान, माया में, माया, सूक्ष्म लोभरूप में संक्रमित होती है। अन्त में सूक्ष्म लोभ स्वमुख से नष्ट हो जाता है। मतिज्ञानावरणादि कर्म, केवलज्ञानावरण में संक्रमित हो जाते हैं। केवलज्ञानावरण कर्म मतिज्ञानावरणादि में बदल जाता है। एक अवस्था से दूसरी अवस्थारूप संक्रान्त होना संक्रमण है। कर्मों का यह संक्रमण ४ प्रकार का है। यथा - प्रकृतिसंक्रमण, स्थितिसंक्रमण, अनुभाग संक्रमण और प्रदेशसंक्रमण ।

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