Book Title: Mulya Darshan aur Purusharth Chatushtaya Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 4
________________ मूल्य दर्शन और पुरुषार्थ चतुष्टय १८७ उनकी किसी क्रम में अनुभूति है, यह बिना मूल्यों में पूर्वापरता माने, जिनमें बौद्धिक, सौन्दर्यात्मक और धार्मिक मूल्य भी समाहित हैं, उच्च केवल मनोवैज्ञानिक अवस्था पर निर्भर नहीं हो सकती। इस प्रकार मूल्य प्रकार के हैं। एक-दूसरे की अपेक्षा रखते हैं। अरबन की दृष्टि में मूल्यों की इसी क्रम-व्यवस्था के आधार __मूल्य की सामान्य चर्चा के बाद अरबन नैतिक मूल्य पर आते पर आत्मसाक्षात्कार के स्तर हैं। आत्मसाक्षात्कार के लिए प्रस्थित हैं। अरबन के अनुसार नैतिक दृष्टि से मूल्यवान होने का अर्थ है मनुष्य आत्मा की पूर्णता उस स्तर पर है, जिसे मूल्यांकन करने वाली चेतना के लिए मूल्यवान होना। नैतिक शुभत्व मानवीय मूल्यांकन के सिद्धान्त सर्वोच्च मूल्य समझती है और सर्वोच्च मूल्य वह है जो अनुभूति की पर निर्भर है। मानवीय मूल्यांकन के सिद्धान्त को कुछ लोगों ने पूर्णता में तथा जीवन के सम्यक् संचालन में सबसे अधिक योगदान आकारिक नियमों की व्यवस्था के रूप में और कुछ लोगों ने सुखया करता है। जैन दृष्टि में इसे हम वीतरागता और सर्वज्ञता की अवस्था की गणना के रूप में देखा था, लेकिन अरबन के अनुसार मानवीय कह सकते हैं। मूल्यांकन के सिद्धान्त का तीसरा एकमात्र सम्भावित विकल्प है एक अन्य आध्यात्मिक मूल्यवादी विचारक डब्ल्यू. आर० 'आत्मसाक्षात्कार'। आत्मसाक्षात्कार के सिद्धान्त के समर्थन में अरबन साली जैन परम्परा के निकट आकर यह कहते हैं कि नैतिक पूर्णता अरस्तू की तरह ही तर्क प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं कि वस्तुओं का ईश्वर के समान बनने में है। किन्तु कुछ भारतीय परम्परायें तो इससे भी शुभत्व उनकी कार्यकुशलता में है, अंगों का शुभत्व जीवन जीने में आगे बढ़कर यह कहती हैं कि नैतिक पूर्णता परमात्मा होने में है। उनके योगदान में है और जीवन का शुभत्व आत्मपूर्णता में है। मनुष्य आत्मा से परमात्मा, जीव से जिन, साधक से सिद्ध, अपूर्ण से पूर्ण की 'आत्म' (Self) है और यदि यह सत्य है तो फिर मानव का वास्तविक उपलब्धि में ही नैतिक जीवन की सार्थकता है। शुभ उसकी आत्मपरिपूर्णता में ही निहित है। अरबन की यह दृष्टि अरबन की मूल्यों की क्रम-व्यवस्था भी भारतीय परम्परा के भारतीय परम्परा के अति निकट है जो यह स्वीकार करती है कि दृष्टिकोण के निकट ही है। जैन एवं अन्य भारतीय दर्शनों में भी अर्थ, आत्मपूर्णता ही नैतिक जीवन का लक्ष्य है। काम, धर्म और मोक्ष पुरुषार्थों में यही क्रम स्वीकार किया गया है। अरबन के अनुसार 'आत्म' सामाजिक जीवन से अलग कोई अरबन के आर्थिक मूल्य अर्थपुरुषार्थ के, शारीरिक एवं मनोरंजनात्मक व्यक्ति नहीं है, वरन् वह तो सामाजिक मर्यादाओं में बँधा हुआ है और मूल्य कामपुरुषार्थ के, साहचर्यात्मक और चारित्रिक मूल्य धर्मपुरुषार्थ समाज को अपने मूल्यांकन से और अपने को सामाजिक मूल्यांकन से के तथा सौन्दर्यात्मक, ज्ञानात्मक और धार्मिक मूल्य मोक्षपुरुषार्थ के प्रभावित पाता है। तुल्य हैं। ___ अरबन के अनुसार स्वहित और परहित की समस्या का सही समाधान न तो परिष्कारित स्वहितवाद में है और न बौद्धिक परहितवाद भारतीय दर्शनों में जीवन के चार मूल्य में है, वरन् सामान्य शुभ की उपलब्धि के रूप में स्वहित और परहित जिस प्रकार पाश्चात्य आचारदर्शन में मूल्यवाद का सिद्धान्त से ऊपर उठ जाने में है। यह दृष्टिकोण भारतीय परम्परा में भी ठीक इसी लोकमान्य है उसी प्रकार भारतीय नैतिक चिन्तन में पुरुषार्थ-सिद्धान्त, रूप में स्वीकृत रहा है। जैन परम्परा भी स्वहित और लोकहित की जो कि जीवन-मूल्यों का ही सिद्धान्त है, पर्याप्त लोकप्रिय रहा है। सीमाओं से ऊपर उठ जाना ही नैतिक जीवन का लक्ष्य मानती है। भारतीय विचारकों ने जीवन के चार पुरुषार्थ या मूल्य माने हैं __ अरबन इस समस्या का समाधान भी प्रस्तुत करते हैं कि १. अर्थ (आर्थिक मूल्य)-जीवन-यात्रा के निर्वाह के लिए मूल्यांकन करने वाली मानवीय चेतना के द्वारा यह कैसे जाना जाय कि भोजन, वस्त्र, आवास आदि की आवश्कता होती है, अत: दैहिक कौन से मूल्य उच्च कोटि के हैं और कौन से मूल्य निम्न कोटि के? आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले इन साधनों को उपलब्ध करना ही अरबन इसके तीन सिद्धान्त बताते हैं अर्थपुरुषार्थ है। पहला सिद्धान्त यह है कि साध्यात्मक या आन्तरिक मूल्य २. काम (मनोदैहिक मूल्य)-जैविक आवश्यकताओं की साधनात्मक या बाह्य मूल्यों की अपेक्षा उच्च हैं। दूसरा सिद्धान्त यह पूर्ति के साधन जुटाना अर्थपुरुषार्थ और उन साधनों का उपभोग करना हैं कि स्थायी मूल्य अस्थायी मूल्यों की अपेक्षा उच्च हैं और तीसरा कामपुरुषार्थ है। दूसरे शब्दों में विविध इंद्रियों के विषयों का भोग सिद्धान्त यह है कि उत्पादक मूल्य अनुत्पादक मूल्यों की अपेक्षा कामपुरुषार्थ है। उच्च हैं। ३.धर्म (नैतिक मूल्य)-जिन नियमों के द्वारा सामाजिक अरबन इन्हें व्यावहारिक विवेक के सिद्धान्त या मूल्य के जीवन या लोकव्यवहार सुचारु रूप से चले, स्व-पर कल्याण हो नियम कहते हैं। ये हमें बताते हैं कि जैविक मूल्य जिनमें आर्थिक, और जो व्यक्ति को आध्यात्मिक पूर्णता की दिशा में ले जाये, वह शारीरिक और मनोरंजनात्मक मूल्य समाहित हैं; की अपेक्षा सामाजिक धर्मपुरुषार्थ है। मूल्य जिनमें साहचर्य और चारित्र के मूल्य भी समाहित हैं, उच्च प्रकार ४. मोक्ष (आध्यात्मिक मूल्य)-आध्यात्मिक शक्तियों का के हैं। उसी प्रकार सामाजिक मूल्यों की अपेक्षा आध्यात्मिक मूल्य, पूर्ण प्रकटीकरण मोक्ष है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15