Book Title: Mulsutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

View full book text
Previous | Next

Page 8
________________ प्रस्तावना का अर्थ ही है-पुस्तक में वर्णित समस्त विषय की पृष्ठभूमि; उसकी रूपरेखा और उस विषय का सर्वांगीण स्वरूप प्रस्तुत कर देना, जिससे पुस्तक पढ़ने से पहले ही पाठक के हृदय में उस विषय की जिज्ञासा और श्रद्धा उत्पन्न हो जाये और उस विषय को स्पष्ट समझने की योग्यता पात्रता भी प्राप्त हो सके। यह कार्य वही कर सकता है जो उस विषय का अधिकारी विद्वान् हो, साथ ही उस विषय के प्रति निष्ठा, श्रद्धा और आदर भाव से समर्पित हो। उस समय युवाचार्यश्री ने प्रस्तावना लिखने के लिए जिन-जिन विद्वानों के नामों पर चिन्तन किया उनमें सर्वाधिक सार्थक नाम श्री देवेन्द्र मुनि जी शास्त्री का था। उस समय आप श्रमणसंघ के किसी पद पर नहीं थे परन्तु अपनी विशिष्ट विद्वत्ता और बहुमुखी ज्ञान-प्रतिभा के कारण समूचे जैन समाज में प्रसिद्धि प्राप्त थे। युवाचार्यश्री ने आपसे आग्रहपूर्वक अनुरोध किया कि आगम समिति द्वारा प्रकाशित होने वाले आगमों पर आपश्री प्रस्तावनाएँ लिखने का दायित्व स्वीकारें। युवाचार्यश्री के हार्दिक स्नेहानुरोध को श्री देवेन्द्र मुनि जी ने सादर स्वीकार किया और तब प्रकाशित होने वाले अनेक आगमों पर आपश्री ने बड़ी विस्तृत और ज्ञानवर्धक प्रस्तावनाएँ लिखीं। कुछ आगमों की प्रस्तावनाएँ लिखने में तो इतना विलम्ब भी हो गया कि आपश्री की प्रस्तावना तैयार होने से पूर्व ही उस आगम का प्रकाशन करना पड़ा परन्तु फिर भी आपश्री ने अत्यन्त श्रम करके, गहन अध्ययन अनुशीलन करके प्रस्तावनाएँ तैयार की। आपश्री की ये प्रस्तावनाएँ संपूर्ण जैन समाज में अपना एक विशिष्ट स्थान बना चुकी हैं। यही कारण है कि श्री महावीर विद्यालय, मुम्बई से प्रकाशित होने वाले प्रज्ञापनासूत्र पर विद्वान् मनीषी मुनि श्री जम्बूविजय जी जैसे सारस्वत सन्तों ने भी आपश्री की प्रस्तावना का ही उपयोग करने की स्वीकृति ली और यह प्रकाशित भी हो चुकी है। उसी प्रकार अन्य अनेक संस्थाओं ने भी तथा विद्वानों ने भी आचार्यश्री द्वारा लिखित प्रस्तावनाओं से लाभ उठाया है। ___ आचार्यश्री द्वारा लिखित प्रस्तावनाएँ पढ़कर अनेक विद्वानों, सन्तों व जिज्ञासु पाठकों ने उन्हें पुस्तकाकार प्रकाशन करने की माँग की। उसी के फलस्वरूप आचारांग आदि तीन अंगसूत्रों की भगवतीसूत्र का तथा छेदसूत्रों की प्रस्तावनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। अन्य अनेक आगमों की महत्त्वपूर्ण प्रस्तावनाएँ अभी भी स्वतंत्र पुस्तकाकार प्रकाशित होने की प्रतीक्षा में है। ___दो वर्ष पूर्व उदयपुर चातुर्मास में आचार्यश्री की भावना थी कि मूलसूत्रों पर लिखी प्रस्तावनाएँ पुस्तकाकार प्रकाशित हो सकें तो पाठकों के लिए अधिक उपयोगी रहेंगी। उस समय मुझे भी आपश्री के सान्निध्य का लाभ मिलता रहा और मैं भी उस कार्य में अपनी शक्ति सामर्थ्य अनुसार सहयोग करके सौभाग्यशाली बनी। इसका मुझे परम हर्ष है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 390