Book Title: Mulachar me Pratikraman evam Kayotsarga Author(s): Shweta Jain Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf View full book textPage 3
________________ 115,17 नवम्बर 2006 | जिनवाणी गाथार्थ- एक वर्ष तक का कायोत्सर्ग उत्कृष्ट है और अन्तर्मुहूर्त का जघन्य होता है। शेष कायोत्सर्ग अनेक स्थानों में होते हैं। अठसदं देवसियं कल्लद्धं पक्खियं च तिण्णिसया। उस्सासा कायव्वा णियमंते अप्पमत्तेण ।। -मूलाचार, षडावश्यकाधिकार, गाथा ६५१ गाथार्थ- अप्रमत्त साधु को दैवसिक के एक सौ आठ, रात्रिक के इससे आधे- चौवन और पाक्षिक के तीन सौ उच्छ्वास करना चाहिए। चादुम्मा से चउरो सदाइं संवत्थरे य पंचसदा। काओन्सग्गुस्सासा पंचसु ठाणेसु णादव्या ।। -मूलाचार, षडावश्यकाधिकार, गाथा ६६० गाथार्थ- चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में चार सौ और सांवत्सरिक में पाँच सौ, इस तरह इन पाँच स्थानों में कायोत्सर्ग के उच्छ्वास जानना चाहिए। पाणिवह मुन्सावाए अदत्त मेहुण परिग्गहे चेय। अट्ठसदं उस्सासा काओसग्गहिी कादव्वा।। - मूलाचार, षडावश्यकाधिकार, गाथा ६६१ गाथार्थ- हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह- इन दोषों के हो जाने पर कायोत्सर्ग में एक सौ आठ उच्छ्वास करना चाहिए। भत्ते पाणे गामंतरे य अरहंतसमणसेज्जासु । उच्चारे पस्सवणे पणवीसं होति उरसासा।। -मूलाचार, षडावश्यकाधिकार, गाथा ६६२ गाथार्थ- भोजन-पान में, ग्रामान्तर गमन में, अर्हत के कल्याणक स्थान व मुनियों की निषद्या वन्दना में और मल-मूत्र विसर्जन में पच्चीस उच्छ्वास होते हैं। उद्देश्से निद्देसे सज्झाए वंदणे य पणिधाणे। सत्तावीसुस्सा-सा काओसरगाि कादव्या।। ___-मूलाचार, षडावश्यकाधिकार, गाथा ६६३ गाथार्थ- ग्रन्थ के प्रारम्भ में, समाप्ति में, स्वाध्याय में, वन्दना में और अशुभ परिणाम के होने पर कायोत्सर्ग करने में सत्ताईस उच्छ्वासपूर्वक कायोत्सर्ग करना चाहिए। काओन्सग्गं इरियावहादिचाररस मोक्खमग्गम्मि । वोसट्ठचत्तदेहा करंति दुक्खक्खयठाए । ___-मूलाचार, षडावश्यकाधिकार, गाथा ६६४ गाथार्थ- मोक्षमार्ग में स्थित होकर ईर्यापथ के अतिचार शोधन हेतु शरीर से ममत्व छोड़कर साधु दुःखों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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