Book Title: Mimansak ka Pratyaksha Lakshan
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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________________ मीमांसक का प्रत्यक्ष लक्षण मीमांसादर्शनमें प्रत्यक्ष प्रमाणके स्वरूपका निर्देश सर्वप्रथम जैमिनीय सूत्रमें (1. 1. 4) ही मिलता है। इस सूत्रके ऊपर शाबरभाष्यके अलावा अन्य भी व्याख्याएँ और वृत्तियाँ थीं। उनमें से भवदासकी व्याख्या इस सूत्रको प्रत्यक्ष लक्षणका विधायक माननेवाली थी (श्लो० न्याय० प्रत्यक्ष श्लो०१)। दूसरी कोई व्याख्या इस सूत्रको विधायक नहीं पर अनुवादक माननेवाली थी (श्लोकवा०प्रत्यक्ष० श्लो०१६)। कोई वृत्ति ऐसी भी थी (शाबरभा० 1.1.5) जो इस सूत्रले शाब्दिक विन्यासमें मतभेद रखकर पाठान्तर माननेवाली थी अर्थात् सूत्र में जो सत् और तत् शब्दका क्रमिक स्थान है उसके बदले तत् और सत् शब्दका व्यत्यय मानती थी। कुमारिलने इस सूत्रको लक्षणका विधान या स्वतन्त्र अनुवादरूप माननेवाले पूर्वमतोंका निरास करके अपने अनोखे ढङ्गसे अन्त में उस सूत्रको अनुवादरूप ही स्थापित किया है और साथ ही उस पाठान्तर माननेवाले मतका भी निरास किया है (श्लोकवा० प्रत्यक्ष श्लो० 1-36) जेसा कि प्रभाकरने अपने वृहती ग्रन्थमैं / प्रत्यक्षलक्षणपरक प्रस्तुत जैमिनीय सूत्रका खण्डन मीमांसकभिन्न वैदिक, बौद्ध और जैन सभी तार्किकोंने किया है। बौद्ध परम्परामें सबसे प्रथम खण्डन करनेवाले दिङनाग (प्रमाणसमु० 1. 37) जान पड़ते हैं / उसीका अनुसरण शान्तरक्षित आदिने किया है / वैदिक परम्परामें प्रथम स्वएडन करनेवाले उद्योतकर ही (न्यायवा० पृ० 43) जान पड़ते हैं | वाचस्पति तो उद्योत. करके ही टीकाकार हैं (तात्पर्य० पृ० 155) पर जयन्तने (न्यायम० पृ० 100) इसके खण्डनमें विस्तार और स्वतन्त्रतासे काम लिया है। जैन परम्परामें इसके खण्डनकार सर्वप्रथम अकलङ्क या विद्यानन्द (तत्वार्थ श्लो० पृ० 187 श्लो. 37) जान पड़ते हैं। अभयदेव (सन्मति टी० पृ०:५३४ ) आदिने उन्हींका अनुगमन किया है। श्रा० हेमचन्द्रने (प्र० मी० पृ० 23.) अपने पूर्ववर्ती जैन तार्किकोंका इस जैमिनीय सूत्रके खण्डनमें जो अनुसरण किया है वह जयन्तके मंजरीगत (पृ० 100) खण्डन भागका ही प्रतिबिम्ब मात्र है जैसा कि अन्य जैन तार्किक ग्रन्थों में ( स्याद्वादर० पृ० 381 ) है। __ खण्डन करते समय प्रा० हेमचन्द्रने कुमारिल-सम्मत अनुवादभङ्गीका निर्देश किया है और उस व्यत्ययवाले पाठान्तरका भी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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