Book Title: Mevad ki Prachin Jain Chitrankan Parampara Author(s): Radhakrishna Vashishtha Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 5
________________ 178 कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड - ..........-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. . - . - . -. - . ग्रन्थ के छः श्रेष्ठ चित्र उपलब्ध हुए हैं, जिनमें विभिन्न ऋतुओं तथा पशुओं के गतिपूर्ण अंकन है जो तत्कालीन कलापरम्परा की अच्छी पुष्टि करते हैं / ये अगरचन्द नाहटा संग्रह बीकानेर में सुरक्षित हैं। महाराणा कुम्भा का काल कला का स्वर्ण युग था। स्वयं महाराणा कुम्भा जैन धर्म में आस्था रखता था। कुम्भा के काल में साहित्य सन्दर्भो में भी चित्रकला के उल्लेख मिलते हैं, उनमें 'सोमसौभाग्य काव्य' उल्लेखनीय है। उस समय मेवाड़ के देलवाड़ा नगर में श्रेष्ठियों के मकानों में कई सुन्दर चित्र बने हुए थे। देलवाड़ा का सम्बन्ध उस काल में माण्डू, ईडर, गुजरात के पाटन, अहमदाबाद, दौलताबाद एवं जोनपुर आदि से होने के समकालीन साहित्यिक सन्दर्भ उपलब्ध हैं / जौनपुर से एक खरतरगच्छ का विशाल संघ आया था, जिन्होंने काव्य सूत्र ग्रंथ लिखवाने की भी इच्छा व्यक्त की थी। इन सन्दर्भो के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मेवाड़ में देलवाड़ा कला व सांस्कृतिक दृष्टि से बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। देलवाड़ा से कुछ आलेखाकारों का जौनपुर में ग्रंथ लेखन हेतु जाना भी सम्भव है। मांडू के स्वर्ण कल्पसूत्र की प्रशस्ति के अनुसार श्रेष्ठी जसवीर जब मेवाड़ में आया तो महाराणा कुम्भा ने उसे तिलक लगाकर सम्मानित किया। इन राज्यों में जैन धर्म व कला की अभूतपूर्व उन्नति हुई। व्यापारिक वर्ग ने तत्कालीन सुल्तानों से कई सुविधाएँ प्राप्त कर ली थीं / माण्डू के कल्पसूत्र की प्रशस्ति में श्रेष्ठी जसवीर का उल्लेख है, जिसने मेवाड़ में चित्तौड़, राणकपुर, देलवाड़ा कुम्भलगढ़, आबू, जीरापल्ली आदि स्थानों की यात्रा की थी और महाराणा कुम्भा ने इन श्रेष्ठियों को सम्मानित भी किया था। मेवाड़ में ऐसे कई साधु गुजरात व मालवा की यात्रा हेतु प्रस्थान करते रहते थे। मेवाड़ के देलवाड़ा में दक्षिण भारत के दौलताबाद व पूर्व के जौनपुर से कई श्रेष्ठियों के आने व ग्रंथ लिखाने के प्रसंगवश वर्णन हैं / अतएव यह स्पट होता है कि मेवाड़ में पन्द्रहवीं सदी में सांस्कृतिक उत्थान बड़ी तेजी से हुआ। किन्तु मेवाड़ में इस काल की कृतियाँ कम मिलती हैं, इसका मुख्य कारण चित्तौड़ में दो बार जौहर का होना है / इन जौहरों में हजारों पुरुष मरे, कई नारियाँ जौहर में कूद पड़ी। आक्रमणकारियों ने मन्दिरों, भवनों और ग्रथ भण्डारों को आग लगा दी। इनका वर्णन पारसी तवारीखों में स्पष्टतः मिलता है। जिससे बड़ी संख्या में ग्रन्थों के नष्ट होने की पुष्टि होती है। 0000 1. रामवल्लभ सोमानी, महाराणा कुम्भा, पृ० 336 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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