Book Title: Mevad ke Jain Veer Author(s): Shambhusinh Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 5
________________ 660 -0 ·O .० Jain Education International -१३८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड अकबर के पहले आक्रमण के समय भामाशाह अपने अवयस्क भाई ताराचन्द सहित प्रताप के साथ चित्तौड़ से उदयपुर आ गये । युद्ध में भारमल के वीर गति प्राप्त करने से भामाशाह प्रताप के साथ स्थायी रूप से रह गये । प्रताप ने अपने पिता द्वारा घोषित मेवाड़ राज्य के उत्तराधिकारी जगमाल को सत्ताच्युत कर मेवाड़ की राज्य गद्दा प्राप्त की तब उन्होंने १ वर्ष बाद रामासहसाणी के बजाय भामाशाह को अपने दीवान के पद पर प्रतिष्ठित किया । मेवाड़ में शीतला सप्तमी पर दीवान द्वारा राणा को भोज देने की परम्परा थी । भामाशाह ने इस अवसर पर प्रताप को प्रथम भोज उदयपुर की मोतीमगरी पर देकर आमन्त्रित सरदारों को दोने भरकर मोती भेंट किये । जिससे इस पहाड़ी का नाम मोतीमगरी पड़ा। फतहसागर झील के किनारे स्थित इस मोतीमगरी पर प्रताप का राष्ट्रीय स्मारक बनाया गया है। प्रताप के गद्दी पर बैठने के तीन वर्ष पश्चात् १५७६ ई० में इतिहासप्रसिद्ध हल्दीघाटी के युद्ध में भामाशाह ने प्रताप की सेना के हरावल के दाहिने भाग का नेतृत्व किया। भामाशाह के साथ उसके भाई ताराचन्द ने भी इस युद्ध में भाग लिया और युद्ध आरम्भ होते ही दोनों भाइयों ने योजनाबद्ध ढंग से इतनी तेजी से मुगल सेना की बांयी हरावल पर आक्रमण किया कि मुगलों का युद्धव्यूह ध्यस्त हो गया और न केवल मुगलों की बांयी हरावल के पाँव उखड़ गये बल्कि वे अपने प्राणों की रक्षा में अपनी दायी हरावल की ओर तेजी से भेड़ों के झुण्ड की तरह भाग खड़े हुए। युद्ध में निश्चित दिखाई दे रही अपनी विजय के उत्साह में अपना घोड़ा मुगल सेना के मध्य भाग में बढ़ाकर जब प्रताप चारों ओर से मुगल सेना से घिर गये तब सादड़ी के झाला मान द्वारा मुगलों को भ्रमित किया गया एवं प्रताप के मुख्य सेनापति हकीम व सूर ने अपने प्राणों को हवेली पर लेकर प्रताप को शत्रुओं के चक्रव्यूह से सुरक्षित खाँ निकाल लिया और उनके घोड़े की लगाम भामाशाह के हाथ में दे दी । भामाशाह घायल प्रताप को कालेड़ा ले गया जहाँ युद्ध से पूर्व मेवाड़ की सेना ने अपना पड़ाव डाला था । हल्दीघाटी के युद्ध के बाद प्रताप के समय के अन्य दो दीवेर एवं चावण्ड के इतिहासप्रसिद्ध युद्धों में युवराज अमरसिंह के साथ भामाशाह ने सेना का नेतृत्व किया और वीरतापूर्वक युद्ध-कौशल से दोनों युद्धों में विजयश्री प्राप्त की। प्रताप के राज्य में दो बार भीषण दुर्भिक्ष पड़ने पर भामाशाह ने मालवा को लूटा और अकाल व सुखाग्रस्त लोगों को अनाज एवं धन देकर जनता की रक्षा की तथा राजकोष को समृद्ध किया । प्रताप की दुर्घटनाग्रस्त मृत्यु के पश्चात् भामाशाह ने गुजराज में लूटपाट कर मेवाड़ के राजकोष की धनाभाव से रक्षा की और अमरसिंह को राज्य संचालन में अपने अनुभव में सदैव मार्गदर्शन दिया । भामाशाह ने अपना सर्वस्त्र मेवाड़ के राजवंश को समर्पित कर दिया था और वे प्रताप की उत्तराधिकारी महाराणा अमरसिंह को भी मेवाड़ राज्य के दीवान के रूप में सर्वसमर्पित सहयोग देते रहे । मृत्यु के बाद उनके अमरसिंह ने अपनी नई राजधानी उदयपुर में राजवंश के परिजनों के लिये अपने द्वारा आयड के पास जो दाहस्थल 'महासत्या' बनवाया भामाशाह की मृत्यु पर उसके बाहर भामाशाह का दाह संस्कार कर उनकी स्मृति में एक छतरी बनवायी और अमरसिह ने स्वयं की मृत्यु पर भामाशाह की छतरी के पास ही अपना दाह संस्कार करने एवं छतरी बनवाने का आदेश देकर भामाशाह को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की। आज भी राजपरिवार के दाह स्थल के बाहर ध्वंसावशेष ये दोनों जीर्णशीर्ण छतरियां महाराणा अमरसिंह एवं भामाशाह की याद दिलाती हैं। भामाशाह का निधन का प्रताप की मृत्यु के तीन वर्ष बाद १६०० ई० में हुआ । ताराचन्द- - ताराचन्द भारमल कावड़िया का द्वितीय पुत्र एवं भामाशाह का छोटा भाई था। यह भी अपने For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.Page Navigation
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