Book Title: Mevad Rajya ki Raksha me Jainiyo ka Yogadan
Author(s): Dev Kothari
Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf

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Page 2
________________ oooooooo0000 देर 000000000000 100000000 ११४ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज - अभिनन्दन ग्रन्थ विक्रम की छठी और आठवीं शताब्दी में मिलते हैं । किन्तु जैनधर्म के सर्वाधिक पुष्ट प्रमाण राणा भर्तृ भट्ट के काल में मिलता है, जब विक्रम संवत् द्वारा गुहिल बिहार में आदिनाथ भगवान की मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई गई। महारावल जैत्रसिंह, महाराणा तेजसिंह, समरसिंह आदि के काल में में आया । tian International मेवाड़ के शासकों के सम्पर्क में आने का १००० में चैत्रपुरीय गच्छ के बूदगणि के उसके बाद तो मर्तृ भट्ट के पुत्र अल्लट, 3 जैनधर्म यहाँ के शासकों के सीधे सम्पर्क राजघराने के सम्पर्क में आने के पश्चात् जैनधर्म को व्यापक संरक्षण प्राप्त हुआ, फलस्वरूप जैनधर्मानुयायियों ने भी अपने बाहुबल, दूरदर्शिता, कूटनीति और प्रशासन योग्यता के द्वारा मेवाड़ राज्य को सुरक्षा और स्थायित्व दिया ऐसे भी अवसर आये जब मेवाड़ के सूर्यवंशी गुहिल अर्थात् सिसोदिया शासकों के हाथ से शासन की बागडोर मुस्लिम शासकों के हाथ में चली गई अथवा अन्य राजनीतिक कारणों से शासन पर उनका प्रभुत्व नहीं रहा किन्तु जैनमतावलम्बी सपूतों ने खोये हुए शासन-सूत्र अपने कूटनीतिक दाँव-पेच एवं बाहुबल के माध्यम से उन्हें पुनः दिलाये । वे चाहते तो परिस्थितियों का लाभ उठाकर मेवाड़ राज्य की सत्ता को स्वयं हस्तगत कर और वीर वसुन्धरा मेवाड़ की गौरवशाली राजगद्दी पर आरूढ़ हो, अपना राज्य स्थापित कर लेते किन्तु सच्चे देशभक्त, स्वामिभक्त तथा सच्चरित्र जैन नरपुंगवों ने ऐसा नहीं किया । अपने रक्त की नदियाँ बहाकर भी वे मेवाड़ के परम्परागत राज्य को सुरक्षा, स्थायित्व एवं एकता के सूत्र में आबद्ध करने के लिए प्राण-प्रण से संघर्षशील रहे । अहिंसा के पुजारी होने के कारण यद्यपि जैनियों पर कायर व धर्मभीरु होने के लांछन लगाये जाते रहे हैं । एक व्यापारिक, सूदखोर तथा सैनिक गुणों से रिक्त होने का आरोप उन पर मढ़ा जाता रहा है, किन्तु यह सब नितान्त एकपक्षीय और अज्ञानता से युक्त है । समय-समय पर तत्कालीन शासकों द्वारा उन्हें दिये गये पट्टे - परवाने, रुक्के, ताम्रपत्र इसके प्रमाण हैं । शिलालेख, काव्य ग्रन्थ ख्यात, वात, वंशावलियाँ, डिंगल गीत आदि इस तथ्य व सत्य के प्रबल सन्दर्भ हैं । मेवाड़ राज्य की रक्षा में जैनियों ने शासन- प्रबन्ध के विभिन्न पदों पर रहकर अपने दायित्वों का निर्वाह किया । इनमें प्रधान, दीवान, फौजबक्षी, मुत्सद्दी, हाकिम, कामदार एवं अहलकार पद प्रमुख हैं । इन पदों पर जैन समाज की विभिन्न जातियों के व्यक्ति कार्यरत थे, जिनमें मेहता, कावड़िया, गांधी, बोलिया, गलूंडिया, कोठारी आदि सम्मिलित हैं । मेवाड़ राज्य की रक्षार्थं इनमें से अनेक जैनियों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया। प्रत्येक का विवरण • प्रस्तुत करना निबन्ध की कलेवर सीमा के कारण सम्भव नहीं है। यहाँ कतिपय प्रमुख जैन विभूतियों का अत्यन्त संक्षिप्त वर्णन ही दिया जा रहा है जालसी मेहता - अलाउद्दीन खिलजी से हुए युद्ध और महारानी पदमिनी के जौहर के पश्चात् गुहिलवंशी शासकों के हाथ से चित्तौड़ निकल गया और उस पर अलाउद्दीन का अधिकार हो गया। उसने पहले खिज्रखाँ को चित्तौड़ पर नियुक्त किया किन्तु बाद में जालौर के मालदेव सोनगरा को चित्तौड़ का दुर्ग सुपुर्द कर दिया। ऐसी विषम स्थिति में विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में जालसी मेहता मेवाड़ राज्य के प्रथम उद्धारक एवं अनन्य स्वामीभक्त के रूप में प्रकट होता है । अलाउद्दीन से हुए इस भयंकर युद्ध में सिसोदे गाँव का स्वामी हमीर ही गुहिलवंशी शासकों का एकमात्र प्रतिनिधि जीवित बच गया था। हमीर अपने पैतृक दुर्ग चित्तौड़ को पुनः हस्तगत करने के लिए लालायित था, इसी उद्देश्य से वह मालदेव के अधीनस्थ प्रदेश को लूटने व उजाड़ने लगा । अलाउद्दीन की मृत्यु के पश्चात् जब दिल्ली १ (१) जैन संस्कृति और राजस्थान, पृष्ठ १२७-२८ । ( २ ) वीरभूमि चित्तौड़गढ़, पृष्ठ ११२-१५ । २ जैन सत्यप्रकाश, वर्ष ७, ( दीपोत्सवांक), पृष्ठ १४६-४७ । ३ डा० कैलाशचन्द्र जैन (जैनिज्म इन राजस्थान ), पृष्ठ २६ । ४ जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ १९३ । ५ एन्युअल रिपोर्ट आफ दि राजपूताना म्युजियम, अजमेर (१९२२-२३), पृष्ठ ८ । ६ वही, पृष्ठ ९ । ROFKठ

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