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पंचम खण्ड / २१८
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अर्चनार्चन
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है-"जब वह प्रार्थना कर रहा था तो उसके चेहरे का रूप बदल गया और उसके वस्त्र श्वेत होकर चमकने लगे।" (लूका ९:२९) इस कारण पवित्र शास्त्र में प्रार्थना करना भी सिखाया गया है। लिखा है-"जब तू प्रार्थना करे तो अपनी कोठरी में जा और द्वार बन्द करके अपने पिता से जो गुप्त में है, प्रार्थना कर।" (मत्ती ६:१) पवित्र शास्त्र यह भी बताता है कि मनुष्य को नित्य प्रार्थना करनी चाहिए (लका १५:१) । यह भी बताया गया है कि प्रार्थना करने में कभी क्रोध और विवाद नहीं होना चाहिए । पौलस का कथन है, "सो मैं चाहता हूँ कि हर जगह पुरुष बिना क्रोध और विवाद के पवित्र हाथों को उठाकर प्रार्थना करे।" (१ तिमोथी २:८) पवित्र शास्त्र विषयों को भी बताता है जिस पर प्रार्थना करनी चाहिए। उदाहरणस्वरूप पापों की क्षमा के लिए (मत्ती ६:१२); बुद्धि के लिए (याकूब की पत्री १:५) रोज की रोटी के लिए (मत्ती ६:११, लका १२:२२, ३२); जीवन की घटनाओं के लिए (फिलिपियो ४:६); जो ईश्वर को नही जानते (याकब की पत्री ५:१६, २०) और बीमारों के लिए (याकूब की पत्री ५:१५, भजन संहिता १०३:३-४) इन सब से ज्ञात होता है कि मसीहीधर्म प्रार्थना का जीवन बिताने पर बल देता है। इस कारण प्रत्येक मसीही को प्रार्थना करने का अभ्यास आवश्यक है ताकि वह प्रार्थना के द्वारा अपने हृदय को परमेश्वर के सम्मुख खोल सके। स्वाध्याय
नियम के अन्तर्गत चौथा तथ्य स्वाध्याय है। स्वाध्याय का अर्थ है स्वयं अध्ययन करना, चिन्तन करना। अत: मसीहीधर्म के अन्तर्गत पवित्र शास्त्र अर्थात बैबल का अध्ययन करते रहना आवश्यक है। पवित्र शास्त्र पढ़ने से ही विश्वास जागत होता है जैसा कि पौलस लिखता है-“सो विश्वास सुनने से और सुनना मसीह के वचन से होता है।" (रोमियो १०:१७) यहोशू की पुस्तक में कहा गया है कि "व्यवस्था की यह पुस्तक तेरे चित्त से कभी न उतरने पाए" (यहीशू १२) नबियों ने इस बात पर जोर दिया है कि यहोवा का वचन सून
और पढ़ (यर्मियाह २१:११,८; २ राजा ७:१; १ राजा २२:१९ यशय्याह २८:१४) स्वाध्याय इसलिए भी आवश्यक हो जाता है कि "यादि में वचन था, वचन परमेश्वर के साथ था और वचन परमेश्वर था" (यूहन्ना १:१) मनुष्य जब स्वाध्याय करता है तब ही ज्ञानरूपी प्रकाश का प्रकटीकरण होता है। इस कारण मनुष्य के जीवन में स्वाध्याय का अभ्यास आवश्यक है और प्रत्येक मसीह का स्वाध्यायी होना ईश्वर की संगति में रहने के समान है। ईश्वर प्रणिधान
नियम के अन्तर्गत अन्तिम तथ्य है ईश्वर प्रणिधान । इसका अर्थ है कि ईश्वर को भक्तिपूर्वक सब कर्म समर्पित करना । ईश्वर के सम्मुख मनुष्य का समर्पण आवश्यक है, क्योंकि बिना उसके अनुग्रह प्राप्त नहीं होता। मनुष्य स्वयं अपने आप कुछ नहीं कर सकता, जैसाकि कहा गया है, "मैं दाखलता हूँ; तुम डालियाँ हो; जो मुझ में बना रहता है और मैं उसमें, वह बहुत फल फलता है, क्योंकि मुझसे अलग होकर तुम कुछ नहीं कर सकते ।" (यूहन्ना १५:५) मनुष्य अपने आप में अपूर्ण है। यदि उसमें योग्यता है भी तो वह परमेश्वर की ओर से है, पौलुस लिखता है, "यह नहीं कि हम अपने आपसे इस योग्य हैं कि अपनी ओर से किसी बात का विचार कर सकें, पर हमारी योग्यता परमेश्वर की ओर से है।" (२ करिन्थियो ३-५)
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