Book Title: Mano Vicharana Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 2
________________ 140 अन्तःकरण-बुद्धि के हों जैसे सांख्य-योग-वेदान्तादिके मतसे; या स्वगत ही हों जैसे बौद्धमतसे / बहिरिन्द्रियजन्य ज्ञानकी उत्पत्तिमें भी मन निमित्त बनता है और बहिरिन्द्रियनिरपेक्ष ज्ञानादि गुणोंकी उत्पत्ति में भी वह निमित्त बनता है / बौद्धमतके सिवाय किसीके भी मतसे इच्छा, द्वेष, ज्ञान, सुख, दुःख संस्कार आदि धर्म भन के नहीं हैं। वैशेषिक, नैयायिक, मीमांसक और जैनके अनुसार वे गुण श्रात्माके हैं पर सांख्य-योग-वेदान्तमतके अनुसार वे गुण बुद्धि -अन्तःकरण-के ही हैं। बौद्ध दर्शन आत्मतत्त्व अलग न मानकर उसके स्थानमें नाम---मन ही को मानता है श्रतएव उसके अनुसार इच्छा, द्वेष, ज्ञान, संस्कार आदि धर्म जो दर्शनभेदसे श्रात्मधर्म या अन्तःकरणधर्म कहे गए हैं वे सभी मनके ही धर्म हैं। . न्याय-वैशेषिक-बौद्ध श्रादि कुछ दर्शनोंकी परम्परा मनको हृदयप्रदेशवर्ती मानती है / सांख्य आदि दर्शनोंकी परम्पराके अनुसार मनका स्थान केवल हृदय कहा नहीं जा सकता क्योंकि उस परम्पराके अनुसार मन सूक्ष्म-लिङ्गशरीरमें, जो अष्टादश : वोका विशिष्ट निकायरूप है, प्रविष्ट है / और सूक्ष्मशरीरका स्थान समग्र स्थूल शरीर ही मानना उचित जान पड़ता है अतएव उस परम्पराके अनुसार मनका स्थान समग्र स्थूल शरीर सिद्ध होता है / जैन परम्पराके अनुसार भावमनका स्थान आस्मा ही है | पर द्रव्यमनके बारेमें पक्ष. भेद देखे जाते हैं। दिगम्बर पक्ष द्रव्यमनको हृदयप्रदेशवर्ती मानता है जब कि श्वेताम्बर पक्षकी ऐसी मान्यताका कोई उल्लेख नहीं दिखता। जान पड़ता है श्वेताम्बर परम्पराको समग्र स्थल शरीर ही द्रव्यमनका स्थान इष्ट है। ई० 1636 ] [प्रमाण मीमांसा 1. 'तस्माश्चित्तस्य धर्मा वृत्तयो नात्मनः।-सर्वद. पात• पृ० 352 / 2. 'ताम्रपर्णीया अपि हृदयवस्तु मनोविशानधातोराश्रयं कल्पयन्ति / '--- स्फुटा० पृ० 41 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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