Book Title: Mangalvada Sangraha
Author(s): Vairagyarativijay
Publisher: Pravachan Prakashan Puna

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Page 90
________________ ॥ श्री ॥ श्री गणेशोपाध्याय विरचितः ईश्वरवादः ( मू० ) एव मनुमाने निरूपिते तस्माज्जग निर्मात्त पुरुष छोटे य सिद्धिः क्षित्यादौ कार्यत्वेन घटवत् सकर्तृकत्वानुमानात् । ईश्वरवाद की रचना के पूर्व तत्त्व चिन्तामणिकार गंगेश ने अनुमान प्रमाण का निरूपण विस्तार पूर्वक किया है। अतः (वे कहते हैं) इस प्रकार से अनुमान का निरूपण करने पर उसीसे (अनुमान प्रमाण से ) इस जगत निर्माता श्रेष्ठ पुरुष (ईश्वर) को सिद्धि होती है क्योंकि पृथ्वी आदि कार्य (उत्पत्तिमान) होने से घट के समान कर्ता वाले हैं पेला अनुमान होता है यहाँ अनुमान का स्वरूप यह है (क्षित्पादि के सकर्तव्य क्रम कार्यत्वात् घटवत्) पृथ्वी आदि कार्य हैं क्योंकि वे घटे के समान किसी कर्ता द्वारा उत्पन्न किये गये हैं । व्याख्या टिप्पणी - अनुमान की प्रक्रिया में पक्ष साध्य हेतु और उदाहरण का प्रयोग होता है, इस अनुमान की प्रक्रिया में क्षिति आदि वस्तुएँ है। जिन का निर्माता प्रत्यक्ष नहीं है 1) पक्ष के रूप में स्थापित की गयी है । तथा एकत्वकत्व अर्थात् कर्तावाला होता यह साध्य है तथा कार्यत्व अर्थात् कार्य होता पाने की उत्पन्न होता हेतु है । घड़ा उदाहरण है जिसमें हम इस नियम (व्याप्ति) को देखते हैं कि जो जो कार्य होता है वह कर्ता से निर्मित होता है । ( मू० ) ननु क्षित्यादि प्रत्येक न पक्षः तस्य स्वदद्धेना मिथातुमशक्यत्वात् । नापि मिलितम् एक रूपा भावात् । अत एव एकर्तृकत्वासकर्तत्वविचारसम्बवसंशय विषयः तथा भूत विवाद विषये वानपक्षः एक रूपा भावेन तयोः तावत् ग्रहीतु मशकयत्वात् वादिनोनिसीतत्वेन संशयाभावात् । न च वाद्यतुमानयोस्तुल्य बलत्वेन मध्यस्थस्य संशयः अनुमानाभ्यां तस्य संशयो मध्यस्थ प्रश्नानन्तरं चानुमानमिति परस्पराश्रयात् घटेऽपि कदाचित् तयोः प्रत्येकं संशमें विवादास्परत्वेनानुमानेऽर्थान्तरा पतेश्य । यदा प्रश्न यह होती है कि पृथ्वी आदि वस्तुओं ये से प्रत्येक वस्तु पक्ष नही हो सकती क्योंकि उसका स्व शठ से कथन सम्भव नहीं है तात्पर्य यह है कि क्षित्यादि के सकर्क्टकं इस प्रतिज्ञा के समय स्व स्व पद से उन सभी वस्तुओं का जिनकाकर्ता उपलब्ध नहीं है । कथन सम्भव नहीं है उसी प्रकार उन सभी पदार्थो को मिलाकर एक रूप में पक्ष के रूप में अथवा सम्भव नहीं है क्योंकि इन सभी पदार्थों का कोई एक अनुगत (सभी में समानरूप से रहेनवाला) स्वरूप नही है । यही कारण है कि कर्ता होने और न होने के विचार को चालना देने वाले संशय का विषय या सकर्तृकत्व अकर्ष्टकत्व विवाद के विषय को पक्ष नही बना सकते क्योंकि पक्षता का नियामक धर्म न होने से उनका एक नियम के रूप में

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