Book Title: Mandu ke Javad Shah Author(s): C Crouse Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 5
________________ Jain Education International ६० ++ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड 1 गुरु का स्वागत अपने पिता के पगचिह्नों पर चलते हुए जाने जैसे आचार्य लक्ष्मीसागरसूरि की बन्दना की थी वैसे ही वह तपागच्छ के गुरुओं का भक्त रहा। उसकी आस्था विशेष रूप से लक्ष्मीसागरसूरि के पट्टधर आचार्य सुमतिसाधुरि के प्रति केन्द्रित थी उसके जीवनीकार ने उसके बहु-प्रशंसित कार्यों को इन्हीं आचार्य के बुद्धिपूर्ण मार्ग-दर्शन का परिणाम माना है। मुमतिसाधु जब गुजरात में बिहार कर रहे थे, जावड़ ने उन्हें में निमन्त्रित किया तथा शानदार आयोजन से उनका अभिनन्दन किया, जिसका सविस्तार वर्णन सुमतिसम्भव में किया गया है ।" वादकों द्वारा प्रयुक्त विविध वाद्यों, उनके तुमुल नाद, भड़कीले जलूस में चलती गजराजियों तथा भूषित घोड़ों, सेठ द्वारा वितरित मूल्यवान् परिधान तथा वेशकीमती अन्य वस्तुओं और मुसलमानों सहित जनता के हये की ओर कवि ने विशेष ध्यान आकृष्ट किया है। माण्डू के वर्तमान सहरों को देखकर इस चित्र की कल्पना माण्डू करना सचमुच कठिन है । - द्वादशव्रत ग्रहण -- गुरु के सान्निध्य में जावड़ को सर्वप्रथम जो कार्य करने की प्रेरणा मिली, वह था श्रावक के बारह व्रत ग्रहण करना, जिन्होंने उसके जीवनीकार की दृष्टि में उसे राजा बेगिक, सम्राट सम्प्रति महाराज कुमारपाल तथा आम, सेठ शालिभद्र जैसे प्राचीन महान् श्रावकों की पंक्ति में आसीन कर दिया । इनमें में प्रथम पाँच व्रत अणुव्रतों के नाम से ख्यात हैं। ये मुनियों के पाँच महाव्रतों के शिथिल संक्षिप्त संस्करण हैं । जावड़ ने प्रथम दो-अहिंसा तथा सत्य व्रतों को परम्परागत रूप में ग्रहण किया । अस्तेय को भी उसने यथावत् स्वीकार किया। केवल फलनाशक कीटाणुओं को दूर करने में वह सतर्क रहा। चतुर्थ व्रत ब्रह्मचर्य के अन्तर्गत, जावड़ ने दाम्पत्य-निष्ठा का परिपालन करते हुए ३२ स्त्रियाँ रखने का अधिकार सुरक्षित रखा। निस्सन्देह, यह उसने निर्दिष्ट शालिभद्र के उदाहरण के अनुकरण पर किया था, जिसकी इतनी ही पत्नियाँ बताई जाती हैं। दोनों में अन्तर केवल इतना है कि शालिभद्र ने उन सबको छोड़कर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली थी । अन्य स्रोतों के अनुसार जावड़ की वस्तुतः चार धर्मपत्नियाँ थीं, जिनके नाम भी हमें ज्ञात हैं। प्राचीन राजपूती परम्परा के अनुरूप, जो कुछ पीढ़ियों पूर्व राजपूत मूलक जैन परिवारों में भी प्रचलित थी, अन्य स्त्रियां उसकी रखले रही होंगी। 1 मन घी तथा तैल, १००० हल, २००० बैल, १० भवन तथा हाट, ४ मन चाँदी, साधारण धातुएँ (तांबा, पीतल आदि), २० मन प्रवाल, १००,००० मन नमक, २००० गधे, १०० गाड़ियाँ, १५०० घोड़े, ५० हाथी, १०० ऊँट, ५० खच्चर, प्राचीन माण्डू के व्यवहारिशिरोरत्न' की समृद्धि का अंदाज किया जा सकता है। अपरिग्रह नामक पंचम व्रत से, जिसके अनुसार निजी सम्पत्ति को संख्या तथा परिमाण की दृष्टि से सीमित करना होता है, जावड़ ने निम्नोक्त क्रम में इन वस्तुओं को अपने अधिकार में रखा - १००,००० मन अनाज, १००,००० १ मन सोना, ३०० मन हीरे, १० मन २००० मन गुड़, २०० मन अफीम, २०,०००,००० टंक । इन अंकों से १. सुमतिसम्भव ७ २६-३३. ४. आनन्दसुन्दर १० १७. - , 'गुणवत' नामक द्वितीय व्रत- समुदाय के अन्तर्गत हठा, सातवां तथा आठवां व्रत आता है। छठे व्रत से जावड़ ने अपनी गति का अर्द्धव्यास आड़ी दिशा में २००० गव्यूति तथा ऊर्ध्व एवं अधोदिशा में क्रमशः आधा तथा २ गव्यूति तक सीमित कर दिया। सातवें व्रत के अन्तर्गत, जो दैनिक खपत तथा प्रयोग की संख्या तथा परिमाण को सीमित करता है, उसने प्रतिदिन अधिकाधिक इन वस्तुओं का प्रयोग करने का प्रण किया- चार सेर घी, पाँच सेर अनाज, पेय जल के पाँच घड़े, सौ प्रकार की सब्जियाँ, संख्या में पाँच सौ तथा तौल में एक मन फल, चार सेर सुपारी, २०० पान, स्नानीय जल के आठ कलश, परिधान के सात जोड़े तथा इसी प्रकार सीमित अन्य वस्तुएँ, जिनकी सूची बहुत लम्बी है। आठवें व्रत के अनुसार, जो ऐसी वस्तुओं तथा कार्यों की सीमा निर्धारित करता है जिनसे प्राणियों को अनावश्यक २. वही, ७.२८. ३. वही, ७. २१. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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