Book Title: Manavta Muskaye
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 10
________________ आठ को शान्ति की अनुभूति हो, सुख और आनन्द की प्राप्ति हो, उसके जीवन की पवित्रता सधे । बहुत स्पष्ट है, जहां वर्तमान स्वस्थ है, वहां भविष्य और परलोक बिगड़ने का कोई प्रश्न ही नहीं है, पर वर्तमान अभिशप्त एवं बिगाड़कर भविष्य और परलोक को सुधारने की भ्रांत धारणा का टूटना अत्यावश्यक है । गणाधिपतिश्री तुलसी ने अपनी यह धर्मक्रान्ति मुख्य रूप से अणुव्रत आंदोलन के माध्यम से की है । इसलिए उन्हें अणुव्रत - अनुशास्ता के रूप में एक व्यापक पहचान मिली है। उनके इस अभियान के दूरगामी परिणाम आने तो अभी शेष हैं, पर जो परिणाम अब तक आए हैं, वे भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं । उनके इस प्रयत्न से लाखों-लाखों लोगों की धर्म के प्रति विश्वास की मीनारों को पुनः स्थिर होने का सुदृढ़ आधार मिला है, जो कि उसके साम्प्रदायिक / संकीर्ण / रूढिग्रस्त / क्रियाकांडात्मक स्वरूप के कारण हिलने लगी थीं । बौद्धिक वर्ग के लिए धर्म का आचरण बुद्धिगम्य बन रहा है । यहां तक कि धर्म-कर्म, आत्मा-परमात्मा, पूर्वजन्म - पुनर्जन्म आदि में विश्वास न करनेवाले नास्तिकों एवं कम्यूनिस्टों को भी वर्तमान जीवन की शान्ति एवं पवित्रता के साधन के रूप में धर्म को स्वीकार करने एवं स्वयं को धार्मिक कहलाने में कोई कठिनाई महसूस नहीं होती । इसी क्रम में जन-जन की धार्मिकता को नैतिकता का पुष्ट आधार मिला है। सिसकती मानवता के आंसू सूख रहे हैं। उसके मुसकाने की आंतरिक भूमिका का निर्माण हो रहा है । वैचारिक स्तर पर यह सिद्धान्त स्थापित हो रहा है, यह समझ विकसित होने लगी है कि धार्मिकता से पूर्व मानवता का जीवन में समावेश आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है । वह कैसा धार्मिक जिसका मानवीय मूल्यों में विश्वास नहीं, जो मानवता का सम्मान करना नहीं जानता । गणाधिपतिश्री तुलसी ने इस धर्मक्रांति के लिए अपने पुरुषार्थ का विविध रूपों में प्रयोग किया है । 'प्रवचन' उसका एक मुख्य स्तंभ है । इस माध्यम से वे पिछले छह दशकों से जन-प्रशिक्षण के दुरूह कार्य को बहुत ही व्यवस्थित रूप में सम्पादित करते रहे हैं। अपने प्रवचनों में लोगों की समझ के स्तर पर खड़े होकर वे धर्म की जो चर्चा करते हैं, वह इतनी हृदयग्राही होती है कि उससे व्यक्ति के मानसिक, वैचारिक एवं आचरणात्मक परिवर्तन का द्वार सहज रूप से उद्घाटित हो जाता है। यदि किसी रूप में भी उनके इन छह दशकों के प्रवचनों को सुरक्षित रखा जा सकता तो निश्चित ही वह संकलन धर्मक्रांति के इतिहास का वह एक दुर्लभ दस्तावेज होता । पर ऐसा संभव नहीं हुआ, तथापि उसका जितना अंश सुरक्षित रहा सका है, वह भी अपने-आपमें अत्यन्त महत्वपूर्ण है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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