Book Title: Manav Sanskruti ke Vikas me Shraman Sanskruti ki Bhoomika
Author(s): Ravindra Jain
Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf

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Page 8
________________ / 520 PORADRASIR 30.066003 GRO 200000 मार्ग है। ब्रह्मचर्य समस्त गुणों की रक्षा करने वाला है और अस्तिकता और कर्म सिद्धान्त-जैन परलोक में विश्वास करते व्यभिचार समस्त गुणों को समाप्त करने वाला है।२० दृष्टव्य है- हैं। आत्मा के परमात्मत्व को मानते हैं। वे शास्त्रानुगामी हैं अतः एक बार गौतम गणधर ने श्रमण महावीर से पूछा-'भन्ते ! मैथुन / आस्तिक हैं। आस्तिकता को किसी खास चौखट में कसना उचित सेवन करने वाले पुरुष में किस प्रकार का असंयम होता है? नहीं है। जैन भाग्य और ईश्वर को सृष्टि नियन्ता न मनकर स्वयं महावीर ने उत्तर दिया-जैसे एक पुरुष रुई की नली या बूर की मानव को (उसके अच्छे बुरे कर्मों को ही) उसका भाग्य विधाता नली में तप्तशलाका डाल उसे नष्ट कर दे। मैथुन सेवन करने वाले मानते हैं। मानव अपना जैसा कर्म करता है। तदनुरूप फल भोगता का असंयम ऐसा होता है। है। बस पुण्य-पाप उसके जीवन को ऊपर नीचे करते रहते हैं। समता भाव-समता भाव ब्रह्मचर्य के पालन का फलितार्थ है, कर्मवाद समस्त भारतीय चिन्तन में किसी न किसी रूप में प्राणीमात्र की आत्मा समान है। अतः सबके प्रति सदा सभी विद्यमान है। इसका जितना सविकसित रूप जैन शास्त्रों में है उतना अवस्थाओं में समता भाव रखना श्रेयष्कर है। दूसरों को जाति, अन्यत्र नहीं। विद्या, रूप, धन, पेशा आदि के आधार पर प्रायः हम देखते हैं कर्मवाद नियतिवाद नहीं है। जीव कर्म के बन्धन में रहकर और छोटा बड़ा समझते हैं। हमें दृष्टि भीतरी गुणों पर और मूल अपने पुरुषार्थ से उसे कम करता और काटता भी है। कृत कर्म का पर रखनी चाहिए। बाह्य संसार तो आडम्बर है और परिवर्तनशील Jफल भोगना ही है, परन्तु नये सत्कर्म करके हम साथ-साथ नयी है। मानव ही नहीं जीव मात्र के प्रति समता भाव हो। शक्ति भी ग्रहण कर सकते हैं। प्राणी पर किसी बाह्य या दूसरे के सैद्धान्तिक दृढ़ता और निज विवेक-प्रत्येक श्रमण से यह पूरी कर्म का शासन नहीं होता, बल्कि स्वकृत कर्म का ही होता है। अतः आशा की जाती है कि वह जिन सिद्धान्तों को पूरी तरह समझकर | हम स्वतन्त्र हैं। कर्मों को रोक भी सकते हैं। स्वीकार कर चुका है, उन पर अटल रहे। अपने प्रबुद्ध विवेक के कर्म का अर्थ-जैन परम्परा में कर्म शब्द एक पारिभाषिक अर्थ साथा उन पर अमल करे। सिद्धान्त का अन्धानुकरण न करे। देश / में ग्रहण किया जाता है। द्रव्य कर्म और भाव कर्म के भेद से कर्म और काल के बदलने पर सद्विवेक के द्वारा पूर्व मान्यताओं में दो प्रकार के हैं / जो जड़ तत्त्व या कर्म आत्मा के साथ मिलकर आवश्यक परिवर्तन या संशोधन भी करे। आशय यह है कि श्रमण कर्म रूप हो जाते हैं, वे द्रव्यकर्म हैं। राग द्वेषमय भाव भावकर्म लकीर का फकीर न हो। श्रमण महावीर ने अपने समय में चातुर्याम कहलाते हैं। योग (मन, वाणी, शरीर की प्रवृत्ति) और कषाय को पंच महाव्रतों में परिवर्धित किया था अनेक धार्मिक-सामाजिक (क्रोध, मान, माया लोभ) ही कर्मबन्ध के कारण हैं। सुधार किये थे। परम्परा और प्रगति का समन्वय श्रमण-चेतना का पतामूल स्वर है। 13, शान्ति नगर, पल्लावरम् मद्रास - 600043 0.00 DDDO065 Post 606003 सन्दर्भ स्थल : 1. "Oxford Dictionary" -Culture 2. Apte's Sanskrit Dictionary. -Culture (संस्कृति) 3. सम्मेलन पत्रिका, लोक संस्कृति अंक, पृ. 22 -डॉ. सम्पूर्णानन्द 4. छान्दोग्योपनिषद् (8-4-1) भारतीय संस्कृति प्र. खण्ड पृ. 3 डॉ. मंगलदेव शास्त्री। 5. "जैन संस्कृति का व्यापक स्वरूप" Y1 -महात्मा भगवान दीन 6. "मानव संस्कृति" लेखक-पं. सुन्दरलाल भगवानदास केला की सहायता 10. दशवैकालिक 11. “अहिंसा तत्त्वदर्शन" पृ. ३-मुनि नथमल 12. “महात्मा गांधी के विचार" (5-138) 13. ए हिस्ट्री ऑफ इन्डियन सिविलीजेशन, पृ. 162 -राधाकमल मुखर्जी 14. 'तिरुक्कुरल' अनुवादक-पं. गोविन्दराय जैन, परिच्छेद 33-(1-9) 15. 'आचारांग'शीतोष्णीय-६९ 16. "Socrates the man and his teaching." P. 47 90. "Socrates-the man and his teaching." P. 48 18. प्रवचन डायरी-"आचार्य तुलसी के 56-57 के प्रवचन", पृ. 49 19. ब्रह्मचर्य-पृ.३, शील की नव बाड़-पृ. 5 से 20. शील की नव बाड़, पृ. 11 DAVODA 7. “मानव संस्कृति" पृ. 6-7 लेखक-भगवानदास केला भूमिका बनारसीदास चतुर्वेदी 8. आचारांग 1-4-2 9. आचाराङ्ग सूक्त (लोक विजय) 37 R000000 6960000 Pedercal 212000.00000.000660 INOOR.COc4 0.0.00A00486

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