Book Title: Mahayan Sampraday ki Samanvayatmaka Jivan Drushti
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_6_001689.pdf
View full book text
________________
महायान सम्प्रदाय की समन्वयात्मक जीवनदृष्टि : १७३
है कि शरीर की मांगों की पूर्ति करना उचित एवं नैतिक है भारतीय परम्परा में जैनधर्म विशुद्ध रूप से वैराग्यवादी परम्परा का समर्थक रहा है और इसी द्रष्टि से उसने किसी सीमा तक देह दण्डन और आत्म-पीड़न के तथ्यों को अपनी साधना पद्धति का अंग भी माना । जैसा कि हमने पूर्व में संकेत किया है श्रमण परम्परा के भगवान बुद्ध प्रथम व्यक्ति हैं, जिन्होंने इन दोनों के मध्य एवं संतुलन बनाते हुए मध्यम मार्ग का उपदेश दिया है। बुद्ध कठोर मार्ग (देह दण्डन) और शिथिल मार्ग (भोगवाद) दोनों को ही अस्वीकार करते हैं। बुद्ध के अनुसार यथार्थ नैतिक जीवन का मार्ग मध्यम मार्ग है। उदान में भी बुद्ध अपने इसी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं -- "ब्रह्मचर्य (संन्यास) के साथ व्रतों का पालन करना ही सार है -- यह एक अन्त है। काम-भागों के सेवन में कोई दोष नहीं यह दूसरा अन्त है। इन दोनों प्रकार के अन्तों के सेवन से संस्कारों की वृद्धि होती है और मिथ्या धारणा बढ़ती है।" इस प्रकार बुद्ध अपने मध्यममार्गीय दृष्टिकोण के आधार पर वैराग्यवाद और भोगवाद में यथार्थ समन्वय स्थापित करते हैं। भगवान बुद्ध ने जिस मध्यम मार्ग के विकास का उपदेश दिया था, उसी का विकास महायान परम्परा में हुआ, यद्यपि यह सत्य है कि मध्यम मार्ग का उपदेश देते हुए भी बुद्ध ने भोग की अपेक्षा वैराग्य पर कुछ अधिक बल दिया था, जबकि महायान साधना किसी सीमा तक भोगवाद की ओर अधिक झुक गयी। महायानी बौद्ध आचार्य अनंगवत्र कहते हैं कि चित्त क्षुब्ध होने से कभी भी मुक्ति नहीं होती, अत: इस प्रकार बरतना चाहिये कि जिससे मानसिक क्षोभ उत्पन्न न हो। वासनाओं के दमन की प्रक्रिया चित्त शान्ति की प्रक्रिया नहीं है। यही कारण है कि आगे चलकर महायान में दैहिक इच्छाओं के दमन को अनुचित माना गया, यद्यपि यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि भोगमार्ग की ओर महायान का यह झुकाव उसे तन्त्रयान और वाममार्ग की दिशा में प्रवृत्त कर देता है।
दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति और आत्म-पीड़न की आलोचना के सम्बन्ध में महायान का दृष्टिकोण गीता के अत्यन्त निकट है। गीता का अनासक्ति योग भी भोगवाद और वैराग्यवाद की समस्या का यथार्थ समाधान प्रस्तुत करता है। यद्यपि गीता में अनेक स्थानों पर वैराग्य भाव का उपदेश है, किन्तु यह स्पष्ट है कि गीता वैराग्य के नाम पर देह-दण्डन की प्रक्रिया की समर्थक नहीं है। निष्कर्ष
यदि हम तुलनात्मक दृष्टि से विचार करें तो स्पष्ट रूप से यह पाते हैं कि महायान सम्प्रदाय ने प्रवर्तक धर्म की अनेक अवधारणाओं को श्रमण परम्परा के अनुरूप रूपान्तरित किया है, वह उसकी अपनी मौलिक विशेषता है। गृहस्थजीवन
www.jainelibrary.org
Jain Education International
For Private & Personal Use Only