Book Title: Mahavir ki Vani me Aparigraha
Author(s): Shreechand Jain
Publisher: Z_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf

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________________ भगवान महावीर की वाणी में अपरिग्रह प्रो. श्रीचन्द्र जैन में छटपटाहट भर देता है । मानव-मानव के बीच जो इतना भेद दिखाई दे रहा है उसका एकमात्र हेतु परिग्रह है। इसी लालसा ने धनी और दीन की दो ऐसी श्रेणियाँ बना दी हैं जो श्वानों की भाँति रात-दिन आपस में लड़ती रहती है। कविवर स्वर्गीय श्रीरामधारी सिंह दिनकर की ये निम्नस्थ पंक्तियाँ परिग्रह से उत्पन्न विभीषिकाओं को चित्रित करती हई जनता के सामने विषमता के घिनौने कुरूपों को चेतावनी के रूप में अंकित करने में पर्याप्त परिग्रह एक ऐसी गहन विकृति है जो न जीवन को समुन्नत बनने देती है और न यह राष्ट्रोन्नति को विकसित होने देती है । वस्तुतः परिग्रही देशद्रोही है, समाज शत्रु है एवं मानवता का कर्लक है । आज तो सर्वत्र विनाश के कारण दिखाई दे रहे हैं इनका मूल कारण परिग्रह ही है । एक देश जब दूसरे राष्ट्र का विध्वंसक बनता है, उसके वैभव को मिटाना चाहता है या उसकी सुखसुविधाओं का शोषण करने के लिए छटपटाता है तब यही समझना चाहिए कि वह स्वार्थी देश परिग्रही बन चुका है और इसीलिये वह स्वार्थांध है। परिग्रह आत्म-ज्योति को इसी प्रकार धूमिल बनाता है जिस प्रकार श्यामल मेघ दिनकर की व्यापक ज्योति को धुंधला कर देता है। ऐसी स्थिति में परिग्रह विकार है, विनाश का उपकरण है, द्रोह का कारण है, शत्रुता का जनक है, एवं विश्वबन्धुत्व का नाशक है । यही माया, विलासिता, लक्ष्मी, ममता, ऐश्वर्य-वैभव आदि अनेक रूपों में प्रदर्शित होकर जन जीवन के सहज स्वरूप को कंलकित करता है और विघटन के नाना भयावह कद्देश्यों को धरती के आंगन में प्रदर्शित करता रहता है। तृष्णा को नागिन कहा गया है जो परिग्रह की ओर मानव को इसी प्रकार आकृष्ट करती है जिस प्रकार दीपक की लौ पंतगों को अपनी ओर खींचती है। इसलिये सन्तों ने तृष्णा के परित्याग को आत्म विकास के लिए अनिवार्य बताया है। संत कबीर की वाणी भगवान् महावीर के उपदेशों से निरन्तर प्रभावित हुई है । कोई मत हो, कोई सम्प्रदाय हो, कोई धर्म हो, कोई ईमान हो, सबने सादे जीवन और उच्च विचारों की प्रशंसा की है। - विश्व की अशांति का प्रमुख कारण परिग्रह है, जो लोभ से समुत्पन्न होता है और शनैः शनैः यही भौतिक सुख-सुविधा के साधनों को अकारण ही एकत्रित करने के लिए इंसान के मानस श्वानों को मिलता दूध वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं । माँ की हड्डी से चिपक ठिटुर जाड़े की रात बिताते हैं । युवती की लज्जा वसन बेच, जब ब्याज चुकाये जाते हैं। मालिक तब तेल फुलेलों पर, पानी सा द्रव्य बहाते हैं । जब तक मनुज मनुज का यह, । सुख भोग नहीं सम होगा। शमित न होगा कोलाहल, संघर्ष नहीं कम होगा । परिग्रह अहिंसक बन ही नहीं सकता। क्योंकि परिग्रह हिंसा का ही दूसरा रूप है। जो परिग्रह में सलंग्न है वह घोर हिंसक, दुराचारी, व्यभिचारी और मायाचारी है। आचार्य शव्यम्भव ने व्याख्या इस प्रकार की है-मुच्छा परिगहो वुतो नायपुतण ताइणा । (दशवे ६) किसी भी वस्तु में बंध जाना अर्थात् उसे अपनी मानकर उसकी ममता में लिप्त हो जाना तथा ममत्व के वश होकर आत्म-विवेक को खो बैठना वी. नि.सं. २५०३ ४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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