Book Title: Mahavir ka Aparigrahavada Author(s): Narendra Bhanavat Publisher: Z_Vijay_Vallabh_suri_Smarak_Granth_012060.pdf View full book textPage 3
________________ भगवान् महावीर का अपरिग्रहवाद ३७ की सम्पत्ति का आवश्यकतानुसार परिमाण करना पड़ता है। हमारे सामने श्रानन्द, कामदेव आदि श्रावकों का आदर्श विद्यमान है जिन्होंने इन व्रतों को ग्रहण कर शांति की स्थापना की। इस परिग्रहपरिमाण की पुष्टि के लिए ही छटा, सातवां और आठवां व्रत हैं । अर्थात् गृहस्थ यह प्रतिज्ञा करे कि मुझे प्रत्येक दिशा में मुक से अधिक सीमा में व्यापार के लिए नहीं जाना है। इससे विषम भोगों की, वैलासिक जीवन की, 'प्रतिस्पर्द्धा की लालसा न बदेगी। प्रतिदिन मनुष्य के उपयोग में आनेवाली प्रत्येक वस्तु की भी गृहस्थ मर्यादा करे। ऐसे पदार्थ दो प्रकार के होते हैं— (१) भोग्य -- जो वस्तु एक बार उपयोग में आने के बाद दूसरी बार न भोगी जायजैसे -- अन्न, जल, विलेपन आदि । (२) उपभोग्य -- जो वस्तु एक से अधिक बार उपयोग में श्राती हो जैसे -- मकान, कपड़ा, गहना आदि । इन सारी चीज़ों की प्रातः उठकर गृहस्थ मर्यादा करे कि अमुक वस्तु मुझे दिन में कितनी बार और कितने परिमाण में काम में लानी है। अन्तिम चार व्रतों का विधान भी आध्यात्मिक बल उत्पन्न करने एवं अपरिग्रहवृत्ति बढ़ाने के निमित्त है । बहु प्रारंभी एवं परिग्रही नरक का भागीदार होता है जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र में कहा है “ बह्वारंभ परिग्रहत्वं नारकस्यायुषः " अतः हमें परिग्रह का त्याग कर अपरिग्रह की ओर झुकना चाहिये क्योंकि : “अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य " यह मनुष्य श्रायु प्रदान करता है । आज दुनिया दो शक्तियों (Power-blocks) में बंटी हुई है । (१) पूंजीवादी दल -- जिसका नेतृत्व अमेरिका कर रहा है। (२) साम्यवादी दल - जिसका नेतृत्व रूस कर रहा है। दोनों अपने अपने स्वार्थ के लिये लड़ रहे हैं और विश्व के तमाम राष्ट्रों को युद्धाग्नि में घसीटने का प्रयत्न कर रहे हैं। अगर एक सच्चे गृहस्थ की तरह ये राष्ट्र भी भगवान् महावीर के सिद्धान्तों- परिग्रहपरिमाणव्रत को ग्रहण कर आवश्यकता से अधिक संगृहीत वस्तु का दान उन राष्ट्रों को कर दें जिनको इनकी जरूरत हो तो मैं दावे के साथ कहा सकता हूं कि विश्व में शांति स्थापित हो जायगी। पिछले दो महायुद्ध हुए जिनका मूल कारण भी यही परिग्रहवृत्ति थी । महावीर का देश भारत आज नये स्वर में उसी सिद्धान्त का प्रचार सर्वोदय, पंचशील, शांतिमय सहअस्तित्व (Peaceful co-existence) के रूप में कर रहा है। अगर प्रत्येक राष्ट्र छटे व्रत के अनुसार प्रत्येक दिशा में अपनी अपनी मर्यादानुसार भूमि का परिमाण करले तो यह युद्ध लिप्सा मिट जाय, यह एटमबाजी समाप्त हो जाय, ये प्रलय के बादल प्रणय की बूँदों में बदल जायँ । गांधीजी के सुशिष्य विनोबाजी इसी भावना से प्रेरित होकर भूदान आन्दोलन कर रहे हैं जिसके अन्तर्गत सम्पत्तिदान, बुद्धिदान, कूपदान, साधनदान और श्रमदान का सूत्र पाल कर अपरिग्रह की भावना का विकास कर रहे हैं और उन्हें काफी सफलता मिली है तथा मिलती जा रही है। प्रगतिशील कवि 'दिनकर' ने 'कुरुक्षेत्र' में लिखा Jain Education International " शांति नहीं तब तक जब तक, सुख-भाग न नर का सम हो । नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो ॥ " For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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