Book Title: Mahavir aur Unke Siddhant
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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________________ डा. जगदीशचन्द्र जैन एम० ए०, पी-एच० डी० महावीर और उनके सिद्धान्त कल्पना कीजिये आज से अढाई हजार वर्ष पहले के जीवन की उस समय की आर्थिक,सामाजिक और धार्मिक परिस्थितियों की. आजकी अपेक्षा उस समय की आर्थिक परिस्थितियाँ सीमित थीं, जिनका प्रभाव तत्कालीन समाजव्यवस्था पर पड़ना अवश्यंभावी था. यातायात, बनिज-व्यापार के साधन बहुत अल थे जिससे दूर के लोगों के साथ संपर्क रखना कठिन था. देवी देवताओं सम्बन्धी अनेक मान्यतायें प्रचलित थीं. खेती-बारी और बनिज-व्यापार में समृद्धि प्राप्त करने और परलोक में शान्ति प्राप्त करने के लिये लोग यज्ञ-यागों में पशु-हिंसा को धर्म मानते थे. मनुष्यों के वर्ण अर्थात् रंगभेद पर आधारित और कार्य-विभाजन के लिये उपयोगी वेदकालीन वर्ण-व्यवस्था, बदलती हुई आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों के कारण अहितकर सिद्ध हो रही थी. मनुष्य-मनुष्य में अन्तर बढ़ रहा था. ज्ञातृपुत्र महावीर ने ऐसे ही समय में वैशाली नगरी के कुंडग्राम में जन्म लेकर बिहार की भूमि को पवित्र किया था. वैशाली में लिच्छिवी गण का राज्य था जहाँ कि राजसत्ता नागरिकों द्वारा चुने हुए अनेक गणराजाओं के अधिकार में थी. वर्धमान के पिता सिद्धार्थ वैशाली के ऐसे ही गणमान्य राजाओं में से थे. उनकी माँ त्रिशला लिच्छिवी घराने की थी. 'पूत के पांव पालने में ही दीख जाते हैं' इस कहावत के अनुसार वर्धमान शुरू से ही कुशाग्र बुद्धि थे. कोई चीज जानने और समझने में उन्हें देर न लगती थी. वे अपने माता-पिता और गुरुजनों के आज्ञाकारी और संयमी प्रकृति के थे. दूसरे को दुखी देख उनका हृदय पिघल जाता और दुखियों का दुख दूर करने के लिये वे सदा प्रयत्नशील रहते. वर्धमान बड़े वीर और साहसी थे. उनके वीरतापूर्ण कृत्यों से मुग्ध होकर ही लोग उन्हें महावीर कहने लगे थे. महावीर का मन संसार में नहीं लगता था. संसार के अन्याय और अत्याचारों को देख उनका कोमल हृदय रो उठता. जितना ही वे विचार करते उतना ही उन्हें यह संसार दुखमय प्रतीत होता. कहीं वे धन-सम्पत्ति की लालसा से युद्ध में संलग्न गणराजाओं को देखते, कहीं उन्हें राजकर और राजदण्ड से पीड़ित लोग दिखाई देते और कहीं ऋण-भार, अकाल और दुर्भिक्ष से ग्रस्त यंत्र की नाई चलते-फिरते मानव नजर आते. कहीं पशु से भी बदतर जीवन व्यतीत करने वाले दास थे, कहीं समाज से बहिष्कृत नीच समझे जाने वाले शूद्र, और कहीं मनुष्योचित अधिकारों से वंचित अपना सर्वस्व समर्पण कर देने वाली नारियाँ. धर्म के नाम पर आडम्बर और शुष्क क्रियाकाण्ड फैला हुआ था तथा जाति-मद से उन्मत्त बने उच्चवर्ण के लोग अपने ही धर्म-कर्म को सर्वोत्कृष्ट प्रतिपादन करते थे. यह सब देखकर महावीर के भावुक हृदय में उथल-पुथल मच गई. एकांत में घण्टों बैठ वे बड़ी गंभीरता से जीवन की समस्याओं पर विचार करते, लेकिन कोई रास्ता उन्हें न सूझता. अनेक बार उन्होंने गृहत्याग कर दीक्षा ग्रहण करने का विचार किया लेकिन घरवालों की अनुज्ञा न मिलने से विचार स्थगित कर देना पड़ा. महावीर अब तीस वर्ष के हो गये थे. उन्होंने सोचा-ऐसे तो सारी उम्र बीत जायेगी. आखिर उन्होंने लोककल्याण करने का निश्चय कर लिया. उन्होंने एक से एक सुन्दर, नाक के श्वास से उड़ जाने वाले कोमल वस्त्रों और बहुमूल्य आभूषणों को त्याग दिया, सोना-चांदी और मणि-मुक्ताओं को छोड़ दिया, स्वादिष्ट भोजन-पान को तिलांजलि दे दी, अपने मित्रों को त्याग दिया, भाई-बन्धुओं को छोड़ दिया और स्वजन-सम्बन्धियों की अनुमति पूर्वक, पालकी में सवार हो, ज्ञातृखंड नामक उद्यान में पहुँच, श्रमण-दीक्षा स्वीकार की. महावीर ने बारह वर्ष से अधिक समय तक घोर तप किया. वे शून्यगृहों, उद्यानों, श्मशानों अथवा वृक्षों के नीचे एकासन Hri Jad Educationem D eparmona-motam w ww.interbrary.org

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