Book Title: Mahavir Achar Dharma Author(s): Darbarilal Kothiya Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf View full book textPage 4
________________ अपने निमित्तसे मरते भी रहते हैं। फिर भी जैनधर्म इस 'प्राणिघात' को हिंसा नहीं कहता । यथार्थमें 'हिसारूप परिणाम' ही हिंसा है । एक किसान प्रातःसे शाम तक खेतमें हल जोतता है और उसमें बीसियों जीवोंका घात होता है, पर उसे हिंसक नहीं कहा गया। किन्तु एक मछुआ नदीके किनारे सुबहसे सूर्यास्त तक जाल डाले बैठा रहता है और एक भी मछली उस के जालमें नहीं आती। फिर भी उसे हिंसक माना गया है । इसका कारण स्पष्ट है । किसानका हिंसाका भाव नहीं है-उसका भाव अनाज उपजाने का है और मछु आका भाव प्रतिसमय तीव्र हिंसाका रहता है । जैन विद्वान् आशाधरने निम्न श्लोकमें यही प्रदर्शित किया है: विष्वग्जीव-चिते लोके क्व चरन् कोऽप्यमोक्ष्यत । ___ भावैकसाधनौ बन्ध-मोक्षौ चेन्नाभविष्यताम् ।। 'यदि भावोंपर बन्ध और मोक्ष निर्भर न हों तो सारा संसार जीवराशिसे खचाखच भरा होनेसे कोई मुक्त नहीं हो सकता।' जैनागममें स्पष्ट कहा गया है : मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयदस्स पत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदस्स ॥ 'जीव मरे या चाहे जिये, असावधानीसे काम करनेवाले व्यक्तिको नियमसे हिंसाका पाप लगता है। परन्तु सावधानीसे प्रवृत्ति करनेवालेको हिंसा होनेमात्रसे हिंसाका पाप नहीं लगता।' - जैनके पुराण युद्धोंसे भरे पड़े हैं और उन युद्धोंमें अच्छे अणुव्रतियोंने भाग लिया है । पद्मपुराणमें लड़ाईपर जाते हुए क्षत्रियोंके वर्णन में एक सेनानीका चित्रण निम्न प्रकार किया है सम्यग्दर्शनसम्पन्नः शूरः कश्चिदणुव्रती । पृष्ठतो वीक्ष्यते पल्या पुरस्त्रिदशकन्यया ॥ 'एक सम्यग्दृष्टि और अणुव्रती सिपाही जब युद्ध में जा रहा है, तो उसे पीछेसे उसकी पत्नी देख रही है और विचारती है कि मेरा पति कायर बनकर युद्धसे न लौटे-वहीं वीरगति प्राप्त करे और सामनेसे देवकन्या देखती है-यह वीर देवगति पाये और चाह रही है कि मैं उसे वरण करूँ।' ___ यह सिपाही सम्यग्दृष्टि भी है और अणुव्रती भी। फिर भी वह युद्ध में जा रहा है, जहाँ असंख्य मनुष्योंका घात होगा । इस सिपाहीका उद्देश्य मात्र आक्रान्तासे अपने देशकी रक्षा करना है। दूसरेके देशपर हमला कर उसे विजित करने या उसपर अधिकार जमाने जैसा दुष्ट अभिप्राय उसका नहीं है। अतः वह द्रव्य-हिंसा करता हुआ भी अहिंसा-अणुव्रती बना हुआ है । उसके अहिंसा-अणुव्रतमें कोई दूषण नहीं आता। जैन धर्म में एक 'समाधिमरण' व्रतका वर्णन आता है, जो आयुके अन्तमें और कुछ परिस्थितियों में जीवन-भर पाले हए आचार धर्मकी रक्षाके लिए ग्रहण किया जाता है। इस व्रतमें द्रव्य-हिंसा तो होती है पर भाव-हिंसा नहीं होती; क्योंकि उक्त व्रत उसी स्थिति में ग्रहण किया जाता है, जब जीवनके बचनेकी आशा नहीं रहती और आत्मधर्मके नष्ट होनेकी स्थिति उपस्थित हो जाती है। इस व्रतके धारकके परिणाम संक्लिष्ट न होकर विशुद्ध होते हैं । वह उसी प्रकार आत्मधर्म-रक्षाके लिए आत्मोत्सर्ग करता है जिस प्रकार एक बहादुर वीर सेनानी राष्ट्र-रक्षाके लिए हँसते-हँसते आत्मोत्सर्ग कर देता है और पीठ नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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