Book Title: Maharshi Arvind ki Sarvang yoga Sadhna
Author(s): Brajnarayan Sharma
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 11
________________ अन्य योग साधनाएं और महर्षि अरविन्द की सर्वांग योगसाधना | १८७ इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवान् तक पहुँचने और उन्हें उपलब्ध करने के सहस्रों मार्ग हैं और प्रत्येक मार्ग के अपने-अपने अनुभव हैं। उन अनुभवों का अपना-अपना सत्य है। वस्तुतः देखा जाय तो समस्त अनुभव एक ऐसे आधार पर स्थित हैं जो सारतः एक है पर विविध पक्षों की दृष्टि से बहुत जटिल बन गया है। यह है तो सर्वजनीन परन्तु जिसे सब लोग एक ही ढंग से अभिव्यक्त नहीं करते। इसीलिए वाद-विवाद और मार्गों का जंजाल उपस्थित हो जाता है जिससे कोई विशिष्ट उपलब्धि नहीं हो पाती। अपना निजी मार्ग खोजना और उसका पूरी तरह अनुसरण करना आवश्यक है। महर्षि अरविंद इसीलिए प्रचलित योगसाधनामों का मंथन कर अपना अभिनव मार्ग अन्वेषित करते हैं जिसमें स्थल सूक्ष्म में और सूक्ष्म अध्यात्म में रूपांरित होते चले जाते हैं । सर्वांगयोग की स्थापना करते हैं। इस साधना में चैत्य पुरुष (जो मन-प्राण से भिन्न अन्तरात्मा है) को इस रूप में अनुभूत किया जा सकता है कि यह हृदय में विराजित भगवान का अंश है। भगवान् ही इसे वहाँ अवलम्बन प्रदान करते हैं। यह चैत्यपुरुष साधना का भार अपने ऊपर ले लेता है और सम्पूर्ण सत्ता को सत्य एवं भगवान् की प्रोर मोड़ देता है। फलत: स्थल चेतना, मन और प्राण में इसके परिणाम उत्पन्न होने लगते हैं। यही प्रथम रूपान्तरण है। इसके पश्चात् साधक एकमेव आत्मा, ब्रह्म या भगवान का अनुभव करता है। प्रथमत: शरीर-प्राण-मन के ऊपर उस परम तत्त्व' का अनुभव होता है जो ऊर्व, स्वतंत्र एवं निलिप्त सत्ता है, सबमें विद्यमान स्थितिशील प्रात्मा है और साथ ही सक्रिय भागवत पुरुष एवं शक्ति या ईश्वरशक्ति के रूप में गतिशील भी है। जगत को अपने में समाये हुए है, इसमें व्याप्त है तथा इससे अतिक्रान्त भी है। वही जगत् के समस्त रूपों को प्रकट करता है। वह एक ऐसे परात्पर प्रकाश, ज्ञान, शक्ति, पवित्रता, शान्ति एवं प्रानन्द के रूप में प्रकाशित होता है जिसका हम सचेतन अनुभव करते हैं । वही हमारी सत्ता के अन्दर अवतरित होता है और स्वयं हमारी साधारण चेतना के स्थान पर उत्तरोत्तर अपनी गतियों को प्रतिष्ठित करता है। यही द्वितीय रूपान्तरण है। इसके पश्चात् ही हमें यह अनुभव हो पाता है कि स्वयं चेतना ऊपर की ओर गति कर रही है और अनेक स्तरों-भौतिक, प्राणिक, मानसिक, अधिमानसिक में से प्रवेश करती हुई विज्ञानमय और आनन्दमय स्तरों की ओर पारोहण कर रही है। अन्य भारतीय मनीषियों की तरह महर्षि अरविंद भी अपनी निरभिमानता प्रकट करते हुए कहते हैं कि यह मेरे द्वारा सजित कोई अनठी या विशिष्ट प्रणाली नहीं है वरन् उपनिषदों में वर्णित सनातन साधना विधि है । जैसा कि 'तैत्तिरीय उपनिषद्' में कहा गया है कि पांच पुरुष हैं-"अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय तथा आनन्दमय पुरुष।" उपनिषद् उद्घोष करता है-“साधक को चाहिए कि वह अपनी अन्नमय प्रात्मा का प्राणमय आत्मा में, प्राणमय का मनोमय में, मनोमय का विज्ञानमय में तथा विज्ञानमय का आनन्दमय प्रात्मा में प्रत्याहार करे और इस प्रकार पूर्णता उपलब्ध करे।" किन्तु सर्वांगयोग साधना में हमें (साधक को) अन्नमय प्रात्मा का ही नहीं वरन् उच्चतर प्रात्मा की शक्ति के नीचे की ओर प्रवाहित होने का भी अनुभव होता है। फलस्वरूप हमारी वर्तमान प्रकृति को अधिकृत एवं परिवर्तित करने एवं इसे अविद्या की प्रकृति से सत्यज्ञान की प्रकृति में और विज्ञानमय प्रकृति को प्रानन्दमय प्रकृति में परिणत करने के लिए विज्ञानमय प्रात्मा और प्रकृति का अवतरण सम्भव हो जाता है। यही तीसरा और अन्तिम प्राध्यात्मिक आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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