Book Title: Maharashtra ka Sanskruti par Jainiyo ka Prabhav Author(s): Rishabhdas Ranka Publisher: Z_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf View full book textPage 3
________________ उसी समय से दक्षिण में पांड्य देश, पंच पांडव, मलय, मदुरा आदि स्थान प्रसिद्ध हुए। इसी प्रकार प्रागऐतिहासिक काल के विषय में डॉ. विद्याधर जोहारपुरकर ने 'महाराष्ट्र में जैनधर्म' में लिखा है कि, "गुणभद्र के उत्तर पुराण में ग्यारहवें और बारहवें तीर्थकरों के मध्यवर्ती समय में प्रथम बलदेव का विहार गरुढ़ध्वज पर्वत पर हुआ था। तथा जिनसेन के हरिवंश पुराण के अनुसार बाइसवें तीर्थंकर के समय अन्तिम बलदेव का देहावसान तुंगीगिरि पर हुआ। यह स्थान नासिक (महा.) जिले में तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध है। - इतिहास कालीन महाराष्ट्र महाराष्ट्र के संतों द्वारा साहित्य निर्माण और कर्त्तव्य बारहवीं शताब्दि से प्रारम्भ होता है। उस समय महाराष्ट्र में यादवों का शासन था। महाराष्ट्रीयन संस्कृति का उद्भव वास्तव में सातवाहन युग से माना जाता है । इसलिए वहां से लेकर बारहवीं शताब्दि तक का राजनैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थिति का अवलोकन किये बिना महाराष्ट्र की संत परम्परा और उनके कार्यों का यथोचित मूल्यांकन संभव नहीं है। और महाराष्ट्र संतों के साहित्य पर जैन धर्म के प्रभाव को बताने के लिए इतिहासकालीन महाराष्ट्र की जानकारी आवश्यक है। ऐसा उल्लेख मिलता है कि भगवान महावीर के पूर्ववर्ती काल में अर्थात् ढाई हजार वर्ष पूर्व महाराष्ट्र जन-भिक्षुओं का विहार क्षेत्र रहा है। डॉ. केतकर ने अपने 'प्राचीन महाराष्ट्र' ग्रन्थ में लिखा है जैन सम्प्रदाय महावीर से पूर्व काल में महाराष्ट्र में था। महावीरोत्तर काल में उसके अधिक प्रसिद्ध होने की स्थिति रही। जैन धर्म का प्रचार बुद्ध काल में महाराष्ट्र में था, यह कहा जा सकता है। 'यह कल्पना थी कि बुद्ध ने श्रमण वर्ग का निर्माण किया था, किन्तु अब यह मान्यता नहीं रही, बल्कि श्रमणों की प्राचीनता बुद्ध के हजारों वर्ष पूर्व तक जाती है।' उस्मानाबाद जिले के अन्तर्गत तेरकी गुफाओं के विषय में बर्जेस कहता है कि ये गुफाएँ ईसा पूर्व ५०० से ६५० वर्ष पूर्व की होनी चाहिए क्योंकि करकंड के वहां आने की बात जैन साहित्य में मिलती है। जिसे डॉ. हीरालाल जैन ने स्वीकार किया है। मगध नरेश नन्दीवर्धन ने दक्षिण देश के नागर खंड को जीत कर मगध साम्राज्य में मिला लिया था । अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु उत्तर के भीषण अकाल के समय बारह हजार साधुओं के साथ दक्षिण की ओर विहार कर गये थे। महानन्द, चन्द्रगुप्त, बिन्दुसार और अशोक के साम्राज्य में दक्षिण भारत का कुछ हिस्सा सम्मिलित था । इन नरेशों ने राजनैतिक या अन्य कारणों से दक्षिण की यात्राएं की थीं, चन्द्रगुप्त के विषय में तो यह अनुश्रुति है कि उसने अपने गुरु के समाधि स्थान के पास श्रवणबेल-गोला में तपस्या की थी, वह जैन मुनि बन गया था और जैन संघों का उसने नेतृत्व भी किया था । अशोक के शिलालेख भी कर्नाटक के मस्की और महाराष्ट्र में सोपारा में हैं। महाराष्ट्र में सातवाहन कुल द्वारा राज्य स्थापना के बाद का समय ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रहा है। डॉ. सांकलिया के मतानुसार:-'ऐतिहासिक दृष्टि से महाराष्ट्र में जैन साधुओं की गतिविधियों का विस्तार मौर्य साम्राज्य के समय (ईसा पूर्व तीसरी सदी) आचार्य भद्रबाहु और सुहस्ती के नेतृत्व में हुआ होगा। यह माना जा सकता है । इस प्रदेश के जैन साधुओं के विहार का सर्वप्रथम स्पष्ट प्रमाण वह संक्षिप्त शिलालेख है, जो पूना जिले के पास पाला ग्राम के निकट एक गुफा में प्राप्त हुआ है। लिपि के आधार पर यह लेख सन् पूर्व दूसरी सदी का माना गया है। इसमें भदन्त इन्द्र रसिन द्वारा इस गुहा के निर्माण का उल्लेख है। सातवाहन काल शालीवाहन कुल के राज्य की स्थापना ईसा पूर्व २४० से २३० । में की थी। वह राज्य ई. सं. २१८ तक लगभग चार सौ वर्ष तक चला। जिसमें कई पराक्रमी राजा हुए। सातवाहन राजा के शासनकाल में वैदिक. बौद्ध और जैन तीनों धर्मों को समुचित आश्रय मिला। इस कुल के राजा उदार, संस्कारशील, विद्या और कला प्रेमी थे। इस कुल के राजा हल ने 'गाथा सप्तशती' नामक प्राकृत ग्रंथ की रचना की। जिस पर जैन धर्म का प्रभाव कहा जाता है। बौद्धों की कई गुफाओं का निर्माण हुआ और जैनियों द्वारा महाराष्ट्री प्राकृत में महत्वपूर्ण साहित्य की रचना हुई। सातवाहन काल में बौद्ध धर्म का काफी प्रभाव था। पश्चिम महाराष्ट्र की गुफा में सोपारा व तेर के अवशेष इसके प्रमाण हैं। नासिक में प्राप्त पत्थर की पट्टियों पर खुदे धर्म से संबद्ध त्रिरत्न आदि चित्र इसके प्रमाण हैं। सातवाहन काल में अग्नि, इंद्र, प्रजापति इन देवताओं के साथसाथ शंकर, उमा आदि देवों को आर्य देवों में सम्मिलित कर लेने की कल्पना इसी काल की है। इसमें संभवत: यह दृष्टि थी कि आर्य अनार्य में संघर्ष हो । वैदिक अभिमानियों ने, बौद्धों की लोकप्रियता कम करने के लिये धार्मिक कल्पना में परिवर्तन किया । यज्ञ विधियों को कर्मकांड बना दिया। यद्यपि सातवाहन ने अनेक यज्ञ किये थे। तथापि 'याथ सप्तशती' में यज्ञ संस्था व अग्निदेवता की अवहेलना ही दिखाई देती है। इसी काल में शैव, वैष्णव, भागवत, कापालिक आदि पंथियों का उदय हुआ। सातवाहन काल के पूर्व से भारत में चातुर्वर्ण्य उत्तर की तरह दक्षिण में भी आर्य-अनार्य संघर्ष समाप्त प्राय हो, आर्य शब्द केवल इतिहास में ही रह गया था। यज्ञ संस्था का महत्व कम होने लग गया था। इसलिये ब्राह्मणों का महत्व भी कम होने लग गया था। चातुर्वर्ण्य व्यवस्था में से जाति संस्था का उदय हुआ। गाथा सप्तशती में अनेक वन्य जातियों के उल्लेख दृष्टिगोचर होते हैं । आमीर, गोप, चांडाल, दास, पुलिंद आदि सातवाहन काल में महाराष्ट्र के नागरिक थे। ____ डा. जोहारपुरकर लिखते हैं कि-'महाराष्ट्र के प्रथम ऐतिहासिक राजवंश-सातवाहन वंश की राजधानी प्रतिष्ठान (आधुनिक १६६ राजेन्द्र-ज्योति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9