Book Title: Mahadev Stotram
Author(s): Hemchandracharya, Sushilmuni
Publisher: Sushilsuri Jain Gyanmandiram Sirohi

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Page 11
________________ वह मुक्त हो सकता है। आज तक ऐसे अनन्त आत्मा मुक्त हो चुके हैं और आगे भी होंगे। ये मुक्त जीव ही, ये सिद्ध जीव ही जैनधर्म में ईश्वर हैं। जैन दार्शनिकों ने इन मुक्तात्माओं को ज्ञान, दर्शन, सुख और शक्ति आदि अनन्त गुणों का पुख परम + आत्मा स्वीकार किया है। इस मौलिक विचार स्वातन्त्र्य के कारण ही वैदिक दार्शनिकों ने षट्दर्शनों की सूची में जैनदर्शन को स्थान ही नहीं दिया और इसे नास्तिक दर्शन भी घोषित कर दिया । जैनदर्शन के ईश्वरवाद की महत्ता को स्वीकार करते हुए एक उदारचेता विद्वान् ने कहा है कि-"यदि एक ईश्वर मानने के कारण किसी दर्शन को आस्तिक संज्ञा दी जा सकती है तो अनन्त आत्माओं के लिये मुक्ति का द्वार उन्मुक्त करने वाले जनदर्शन में अनन्तगुणी आस्तिकता स्वीकार करना न्यायसंगत होगा।" जैनधर्मानुसार अनादिकाल से कर्मबन्धन के कारण जीव अज्ञानी और अल्पज्ञ बना हुआ है। ज्ञानावरणीयादि कर्मों ने उसके स्वाभाविक ज्ञानादि गुणों को ढक रखा है। आवरणों से मुक्त होने पर यह जीव ज्ञानादि का अधिकारी होता है। जो-जो आत्माएँ कर्मबन्धन को छेदकर मुक्त हुई हैं, वे सब सर्वज्ञ हैं तथा जो कोई सर्वज्ञ होता है वह कर्मबन्धन को काटकर ही सर्वज्ञ हो सकता है, उसके बिना कोई सर्वज्ञ हो ही नहीं सकता अतः कोई जीव अनादि सिद्ध नहीं है। जैन सिद्धान्त क्रोध-मान-माया-लोभ, हास्य, भय, विस्मय आदि विकारों से रहित वीतराग, सर्वज्ञ, परम+आत्मा को ईश्वर मानता है। ऐसा ईश्वर विश्व को लीला में किसी प्रकार का भाग नहीं लेता है। वह तो सब प्रकार की इच्छात्रों से रहित हुआ कृतकृत्य है। आत्मा की दृष्टि से संसारी और मुक्तात्मा में कोई अन्तर नहीं है। भेद केवल इतना ही है कि हममें वे सारी दैवी --छहFor Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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