Book Title: Madhyapradesh ki Prachin Jain Kala
Author(s): Krushnadatta Vajpai
Publisher: Z_Agarchand_Nahta_Abhinandan_Granth_Part_2_012043.pdf

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Page 2
________________ शुग-सातवाहन काल ( ई० पूर्व दूसरी शतीसे लगभग २०० ई० तक )में विदिशामें यक्ष-पूजाका प्रचलन था। यक्षों तथा यक्षियोंकी अनेक महत्त्वपूर्ण मूर्तियां विदिशासे मिली हैं। कुछ वर्ष पूर्व बेतवा नदीसे यक्ष-यक्षीकी विशाल प्रतिमाएँ प्राप्त हुई, जो अब विदिशाके संग्रहालयमें सुरक्षित हैं। नाग-पूजाका भी प्रचार विदिशा, पद्मावती, कान्तिपुरी आदि स्थानोंमें बड़े रूप में हुआ। नाग-नागियोंकी प्रतिमाएँ सर्पाकार तथा मानवाकार दोनों रूपोंमें बनायी जाती थीं। शक-कुषाण-युग ( ई० पूर्व प्रथम शतीसे द्वितीय शती ई०के अंत तक )में कला-केंद्रके रूपमें मथुरा की बड़ी उन्नति हुई । वहां जैन तथा बौद्ध धर्मोंका असाधारण विकास हुआ। मूर्ति शास्त्र के महत्त्वकी दृष्टिसे मथुरामें निर्मित प्रारंभिक जैन एवं बौद्ध कलाकृतियां तथा वैदिक-पौराणिक देवोंकी अनेक प्रतिमाएँ उल्लेखनीय हैं। विविध भारतीय धर्म पूर्ण स्वातंत्र्य तथा सहिष्णुताके वातावरणमें साथ-साथ, बिना ईर्ष्या-द्वेषके मथुरा, विदिशा, उज्जयिनी आदि अनेक नगरोंमें शताब्दियों तक पल्लवित-पुष्पित होते रहे। यह धर्म-सहिष्णुता प्राचीन भारतीय इतिहासकी एक बहत बड़ी विशेषता मानी जाती है । शक-कुषाण कालमें मथुराके साथ विदिशाका संपर्क बहत बढ़ा। इन वंशोंके शासकोंके बाद विदिशामें नाग राजाओंका शासन स्थापित हुआ। उनके समयमें मथुरा कलाका स्पष्ट प्रभाव मध्यभारतके पद्मावती, विदिशा आदि नगरोंकी कलाकृतियों में देखनेको मिलता है। कलामें बाह्य रूप तथा आध्यात्मिक सौंदर्यके साथ रसदृष्टिका समावेश इस कालसे मिलने लगता है, जिसका उन्मेष गुप्तकाल ( चौथीसे छठी शती ई० में विशेष रूपसे हुआ। मुख्यतः मथुरामें जैन तीर्थंकर प्रतिमाओंको विशिष्ट लांछन या प्रतीक प्रदान करनेकी बात प्रारंभ हई । श्रीवत्स चिह्न के अतिरिक्त विविध मंगलचिह्न तथा तीर्थंकरोंसे संबंधित उनके विशेष प्रतीकोंका विधान उनकी प्रतिमाओंमें मथुराकी प्राचीन कलामें देखनेको मिलता है। जैन सर्वतोभद्र (चौमुखी) प्रतिमाएँ भी मथुरामें कुषाणकालसे बनने लगी । इसका अनुकरण अन्य कला केन्द्रोंमें किया गया। कुछ वर्ष पूर्व विदिशासे तीन दुर्लभ तीर्थकर मूर्तियों की प्राप्ति हुई। इन तीनों पर ब्राह्मी लिपि तथा संस्कृत भाषामें लेख खुदे हैं । दो प्रतिमाओं पर तीर्थंकर चन्द्रप्रभका नाम तथा तीसरी पर तीर्थंकर पुष्पदंतका नाम उत्कीर्ण है। लेखोंसे ज्ञात हुआ है कि तीनों मूर्तियोंका निर्माण गुप्तवंशके शासक 'महाराजाधिराज' रामगुप्तके द्वारा कराया गया। यह रामगुप्त गुप्तसम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्यका बड़ा भाई था। उक्त लेखों तथा रामगुप्त नामवाले बहुसंख्यक सिक्कोंसे रामगुप्तकी ऐतिहासिकता सिद्ध हो गयी है। इन तीनों मूर्तियोंकी कला निस्संदेह मथुरा शैलीसे प्रभावित है। ध्यानमुद्रामें पद्मासन पर स्थिति, अंगोंका विन्यास, सादा प्रभामंडल आदिसे इस बातकी पुष्टि होती है । मथुराकी प्रारंभिक मूर्तियोंकी तरह ये तीनों प्रतिमाएं भी चारों ओरसे कोरकर बनायी गयी हैं। प्रत्येक तीर्थकर मूर्तिके दोनों ओर चॅवर लिए हुए देवताओंको प्रदर्शित किया गया है। मूर्तियोंकी चौकी पर चक्र बना है। विदिशासे प्राप्त ये तीनों नवीन मर्तियाँ स्थानीय मटमैले पत्थरकी बनी हैं। उनके लेख सांची तथा उदयगिरिके गुप्तकालीन ब्राह्मी लेखों जैसे हैं। गुप्तयुगमें जन कलाकृतियोंका निर्माण विवेच्य क्षेत्रके विविध भागोंमें जारी रहा। विदिशाके पास उदयगिरिकी गुफा संख्या २० में गुप्त-सम्राट् कुमारगुप्त प्रथमके शासन-कालमें तीर्थंकर पार्श्वनाथकी अत्यंत कलापूर्ण मूर्तिका निर्माण हुआ । पन्ना जिलेमें सहेलाके समीप सीरा पहाड़ीसे एक तीर्थंकर प्रतिमा मिली है, जिसका निर्माणकाल लगभग ५०० ई० है। ... इतिहास और पुरातत्त्व : २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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