Book Title: Madhyakalin Rajasthani Kavya ke Vikas me Kaviyuitriyo ka Yogadan
Author(s): Shanta Bhanavat
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 13
________________ चतुर्थ खण्ड | 230 आदि अखर बिन जग को ध्यावे, मध्य अखर बिन जग संहारे। अन्त अखर बिन लागत मीठा, वह सबके नयनों में दीठा। उत्तर-काजल उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हिन्दी साहित्य की वीर, शृगार, भक्ति एवं अध्यात्म की विविधरूपा काव्यधारा को समृद्ध एवं पुष्ट बनाने में राजस्थान की कवयित्रियों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।' -सी-२३५ ए तिलक नगर, जयपुर-४ इस निबन्ध को तैयार करने में "प्रेरणा" (फरवरी 1963) के 'राजस्थानी कवयित्रियाँ विशेषांक से सहायता ली गई है। इसके लिए लेखिका, सम्पादक श्री दीनदयाल अोझा के प्रति आभार व्यक्त करती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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