Book Title: Madhya pradesh me Jainacharyo ka Vihar Author(s): Vidyadhar Johrapurkar Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf View full book textPage 4
________________ आशाधरकी ग्रंथप्रशस्तियोंमें भी मिलता है। मदनकीर्तिने उनकी प्रशंसा की थी और विशालकीतिने उनसे न्यायशास्त्र पढ़ा था। आशाधरने आचार्य महावीरसे धारामें प्रमाणशास्त्र और व्याकरणशास्त्र पढ़ा था । आचार्य सागरचन्द्र के शिष्य विनयचन्द्रके आग्रहसे उन्होंने इष्टोपदेशटीका लिखी थी। उनके प्रशंसकोंमें मुनि उदयसेनका नाम भी उल्लिखित है।' तपागच्छकी गुर्वावलियोंसे ज्ञात होता है कि नव्य कर्मग्रन्थोंके रचयिता देवेन्द्रसूरि (स्वर्गवास सन् १२७०) और उनके शिष्य विद्यानन्दका विहार उज्जयिनीमें हुआ था। विद्यानन्दके गुरुबन्धु धर्मघोषसूरिके उज्जयिनी और मण्डपदूर्ग (माण्डव)में विहारका वर्णन भी इनमें मिलता है। पावागिरि (ऊन)के सन् १२०१ के एक मूर्तिलेखमें प्रतिष्ठापक आचार्य देशनन्दिका नाम उल्लिखित है। इसी प्रकार सोनागिरिके सन् १२१५ के एक मूर्तिलेखमें प्रतिष्ठापक आचार्य धर्मचन्द्रका नाम उल्लिखित है। प्रशस्तियोंके अनुसार जब आचार्य कमलभद्र मालवामें सलखणपुरमें विहार कर रहे थे, तब सन् १२३० में दामोदर कविने उनके सान्निध्यमें नेमिनाथचरितकी रचना की थी। बडवानीके निकट चूलगिरि पर्वतकी एक जिनमूर्तिके सन् १३१२ में लेखमें प्रतिष्ठापक आचार्य शुभकीर्तिका नाम प्राप्त होता है । धनपाल कविके बाहुबलिचरित (सन् १३९८) के अनुसार उनके गुरु आचार्य प्रभाचन्द्रने अन्य अनेक नगरोंके साथ धारा नगरमें भी विहार किया था। पन्द्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी-आचार्य गुणकीर्तिके उपदेशसे ग्वालियरमें कवि पद्मनाभ कायस्थने सन् १४०५ के करीब यशोधरचरितकी रचना की थी। यहीं आचार्य यशःकीर्तिने सन् १४३० में भविष्यदत्त कथा और सूकूमारचरितकी प्रतियाँ लिखवाई थीं। यहीं पर उन्होंने स्वयंभविरचित अरिष्टनेमिचरितका जीर्णोद्धधार भी किया था। ग्वालियरमें ही आचार्य गुणभद्रने सन् १४५० के करीब अनन्तव्रतकथा आदि पन्द्रह कथाओंकी रचना की थी। इसी प्रकार आचार्य जिनचन्द्र द्वारा सन् १४५७ में और आचार्य सिंहकीर्ति द्वारा सन् १४७४ में ग्वालियरमें जिनमूर्तिप्रतिष्ठामहोत्सव सम्पन्न कराये गये थे। आचार्य श्रतकीर्तिने दमोहके निकट जेरहटमें सन् १४५७ में हरिवंशपुराणकी रचना पूर्ण की थी।" सुरतके आचार्य देवेन्द्रकीतिने अन्य अनेक स्थानोंके समान अवंती (मालवा)में भी प्रतिष्ठायें करवाई थीं, ऐसा उनकी परम्पराकी पट्टावलीसे ज्ञात होता है । इसी पट्टावलीके'२ अनुसार उनके प्रशिष्य आचार्य १. पट्टावली समुच्चय (दर्शनविजयजी), भा० १, पृ० ५७, ६० २. अनेकान्त वर्ष १२, पृ० १९२ । ३. जैनशिलालेखसंग्रह, भा० ४, पृ० ५९ ४. जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह, भा० २, पृ० १३९ ५. अनेकान्त, वर्ष १२, पृ० १९२ ६. अनेकान्त, वर्ष ७, पृ० ८३ ।। ७. जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह, भा० १, पृ. ४ ८. जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह भा० २, पृ० ८३, ११२ ९. जैनशिलालेखसंग्रह, भा० ५, पृ० ८२, ८४ १०. जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह, भा॰ २, पृ० १२२ ११. भट्टारकसम्प्रदाय. पृ० १६९ १२. जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह, भा० १, पृ० १७ -२९१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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