Book Title: Leshya Vichar Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 1
________________ १११ लेश्या विचार बौद्ध-पिटकों तथा जैन-ग्रन्थों को पढ़नेवाला सामान्य अभ्यासी केवल यही जान पाता है कि निर्ग्रन्थ-परंपरा ही तप को निर्जरा का साधन माननेवाली है परन्तु वास्तव में यह बात नहीं है । जब हम सांख्य-योग-परंपरा को देखते हैं तब मालूम पड़ता है कि योग-परंपरा भी निर्जरा के साधन रूप से तप पर उतना ही भार देती आई है जितना भार निर्ग्रन्थ-परंपरा उस पर देती है। यही कारण है कि उपलब्ध योग-सूत्र के रचयिता पतंजलि ने अन्य साधनों के साथ तप को भी क्रिया-योग रूप से गिनाया है (२-१) इतना ही नहीं बल्कि पतञ्जलि ने क्रिया-योग में तप को ही प्रथम स्थान दिया है। इस सूत्र का भाष्य करते हुए व्यास ने सांख्य-योग्य-परंपरा का पूरा अभिप्राय प्रगट कर दिया है। व्यास कहते हैं कि जो योगी तपस्वी नहीं होता वह पुरानी चित्र-विचित्र कर्म-बासानाओं के जाल को तोड़ नहीं सकता। व्यास का पुरानी वासनाओं के भेदक रूप से तप का वर्णन और निग्रंथ-परंपरा का पुराण कर्मों की निर्जरा के साधन रूप से तप का निरूपण-ये दोनों श्रमण-परंपरा की तप संबन्धी प्राचीनतम मान्यता का वास्तविक स्वरूप प्रगट करते हैं । बुद्ध को छोड़कर सभी श्रमण-परंपराओं ने तप का अति महत्त्व स्वीकार किया है। इससे हम यह भी समझ सकते हैं कि ये परंपराएँ श्रमण क्यों कहलाई? मूलक में श्रमण का अर्थ ही तप करनेवाला है। जर्मन विद्वान् विन्टरनित्स् ठीक कहता है कि श्रामणिक-साहित्य वैदिक-साहित्य से भी पुराना है जो जुदे जुदे रूपों में महाभारत, जैनागम तथा बौद्ध-पिटकों में सुरक्षित है । मेरा निजी विचार है कि सांख्ययोग-परंपरा अपने विशाल तथा मूल अर्थ में सभी श्रमण-शाखाओं का संग्रह कर लेती है । श्रमण-परंपरा के तप का भारतीय-जीवन पर इतना अधिक प्रभाव पड़ा है कि वह किसी भी प्रान्त में, किसी भी जाति में और किसी भी फिरके में सरलता से देखा जा सकता है। यही कारण है कि बुद्ध तप का प्रतिवाद करते हुए भी 'तप' शब्द को छोड़ न सके। उन्होंने केवल उस शब्द का अर्थ भर अपने अभिप्रायानुकूल किया है। (६) लेश्या-विचार वैदिक-परंपरा में चार वर्णों की मान्यता धीरे-धीरे जन्म के आधार पर स्थिर हो गई थी। जब वह मान्यता इतनी सख्त हो गई कि आन्तरिक योग्यता रखता हुआ भी एक वर्ण का व्यक्ति अन्य वर्ण में या अन्य वर्णयोग्य धर्मकार्य में प्रविष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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