Book Title: Leshya Ek Vivechan
Author(s): Mahaveer Raj Gelada
Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf

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Page 3
________________ लेश्या : एक विवेचन | 243 000000000000 यह एक स्थूल तुलना है। फिर भी इससे ज्ञात होता है कि लेश्या की पहचान वर्ण प्रधान है, लेकिन इसके मुख्य लक्षण प्रति सेकण्ड आवृत्ति तथा तरंग लम्बाई हैं / पुद्गल जितनी अधिक आवृत्ति करेगा चेतना के लिए अशुभ होगा। ध्यान एवं योग की प्रक्रिया में पुद्गल की आवृत्ति रोकने का प्रयत्न होना चाहिए / द्रव्य मन के पुद्गल कम से कम आवृत्ति करें, वाणी एवं शरीर भी पुद्गल ग्रहण और छोड़ने के काल को बढ़ायें / इससे आवृत्ति कम होगी और शुभ लेश्या का प्रयोग होगा। अतः लेश्या में वर्ण को परिभाषित करने वाले तीन तत्त्व हैं-(१) पौद्गलिकता, (2) आवृत्ति, (3) तरंग-लम्बाई। सूक्ष्मता-अणु, परमाणु तथा अन्य सूक्ष्म कणों के सम्बन्ध में विज्ञान के क्षेत्र में जो अनुसंधान हुए हैं उसमें प्रकाश की विकिरणों के प्रयोग सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं / तत्त्व के परमाणुओं पर प्रकाश की विभिन्न तरंगदैर्ध्य वाली विकिरणों की प्रक्रिया से परमाणु रचना के ज्ञान में उत्तरोत्तर विकास हुआ है / प्रत्येक तत्त्व का स्पैक्ट्रम में एक निश्चित संकेत होता है। आत्मा की योगात्मक प्रवृत्ति से उसके फलस्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म पुद्गल संकेत के रूप में बंध जाते हैं जो कि कर्म हैं / ये कर्मवर्गणायें सूक्ष्म हैं-चार स्पर्श वाली हैं, इनमें हल्का तथा भारीपन नहीं होता है। योग की प्रवृत्ति स्थूल है इसमें आठ स्पर्श वाले पुद्गल-स्कंध का प्रयोग होता है। स्थूल पुद्गलों (योग) द्वारा होने वाली क्रिया के सूक्ष्म संकेत (कर्म) के लिए अनिवार्य है कि प्रकाश की विकिरणों का प्रयोग हो, अन्यथा विज्ञान की दृष्टि से अत्यन्त सूक्ष्म संकेत प्राप्त नहीं किये जा सकते, अर्थात् कर्मबन्ध नहीं हो सकता / अतः लेश्या, प्रकाश की विकिरणें होनी चाहिए और कर्म पुद्गल प्रकाश पुञ्ज से सूक्ष्म होने चाहिए। स्पैक्ट्रम प्रकाशमापी विज्ञान ज्यों-ज्यों विकसित होता जा रहा है स्थूल पुद्गलों के सूक्ष्म संकेत विभिन्न विकिरणों के माध्यम से प्राप्त किये जा सकेंगे और जैनदर्शन के कर्मबन्ध का सिद्धान्त लेश्या की समझ के साथ अधिक स्पष्ट हो जायेगा / MATION MAIL HRAVAVANSH JumITIO ....... ---0--0--0--0 इच्छा बहुविहा लोए, जाए बद्धो किलिस्सति / तम्हा इच्छामणिच्छाए, जिणित्ता सुहमेधति / / -ऋषिभाषित 401 संसार में इच्छाएँ अनेक प्रकार की हैं, जिनसे बंधकर जीव दुःखी होता है। अतः इच्छा को अनिच्छा से जीतकर साधक सुख पाता है / -0--0--0--0--0

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