Book Title: L P Jain aur unki Sanket lipi Author(s): Nathmal Duggar, Tejsinh Rathod Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 2
________________ ६०४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : तृतीय अध्याय उनकी अनेक देनों में सबसे महत्त्वपूर्ण देन 'जैन संकेतलिपि' के रूप में अमर रहेगी. इस संकेतलिपि के आविष्कार की भूमिका अपने चरित्रनायक के ही शब्दों में हम नीचे उद्धृत कर रहे हैं : 'कई वर्षों से मेरे हृदय में यह तरंग उठ रही थी कि सर्व देशवासियों का एक ही भाषा में बोलना तो असम्भव है किन्तु सम्भव है कि लेखनप्रणाली में कुछ सफलता मिल जाय. इससे प्रेरित होकर मैंने सोचा कि एक ऐसी लिपि का आविष्कार किया जाय कि जिसके संकेत इतने सरल और थोड़े हों, जिनको किसी भी भाषा में किसी भी देश का रहनेवाला विद्वान् समझ सके और मात्र तीन या चार महीने के थोड़े से परिश्रम से सीख सके. इस लिपि के संकेत इतने व्यापक हों कि किसी भी देश की किसी भी भाषा का शब्द इसमें सरलता से अंकित किया जा सके. लिखने में भी यह इतनी संक्षिप्त हो कि जिसको वक्ता की भाषा का थोड़ा बहुत भी ज्ञान हो वह वक्ता के मुंह से निकले हुए शब्दों को शीघ्रता से इस लिपि में नोट कर सके. किन्तु मेरे हृदय में इस लिपि के लिये इतनी प्रबल उत्तेजना नहीं थी कि शीघ्र ही व्यवस्थित कर दी जाय. 'इसे शीघ्र व्यवस्थित न करने में मुख्य आपत्ति यह थी कि इसका प्रत्येक संकेत, चाहे कितने ही संकेतों में मिल जाने पर भी, अपनी ही शक्ल का द्योतक बना रहे. यानि दो संकेतों के मिल जाने पर भी तीसरे संकेत का सन्देह न हो जाय. क्योंकि मेरी इच्छा थी कि प्रत्येक शब्द व वाक्य को अंकित करने में जहाँ तक हो कलम कम उठाई जाय. 'इन संकेतों के मिलान की आपत्ति ने ही मुझे विशेष झंझट में डाल दिया. विलम्ब होने का मुख्य कारण यही था. इन्हीं आपतियों पर विचार करते हुए जब कि श्रीमान् जैनाचार्य पूज्यवर मुनि श्रीजवाहिरलालजी महाराज के अपूर्व और विलक्षण प्रभावोत्पादक भाषणों को मैंने सुना, तो मेरी यह इच्छा हो जाना स्वाभाविक ही थी कि ऐसा यत्न शीघ्र किया जाय जिससे हर एक मनुष्य उनके भावों का जिस समय भी चाहे मनन कर सके. 'जब कि देश के प्रसिद्ध नेता पं० मदनमोहनजी मालवीय आदि विद्वानों ने भी उनके भाषणों की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा को है और यह भी सुनने में आया है कि इन्हीं पूज्य श्री की रचित 'धर्मव्याख्या' नामक पुस्तक की संसारप्रसिद्ध महात्मा गांधीजी ने भी प्रशंसा की है और उसका अनुवाद अंग्रेजी में होने की भी आवश्यकता बतलाई है तो फिर भला यदि मेरे हृदय में उनके अमूल्य उपदेशों को संग्रह करने के भाव जागृत हुए तो इसमें विशेषता ही क्या है ? इसी उद्देश्य से प्रेरित हो, मैं इस उपरोक्त 'संकेतलिपि' की ओर विशेष लक्ष्यपूर्वक परिश्रम करने लगा. हर्ष का विषय है कि मैं उपरोक्त सर्व आपत्तियों को निवारण करता हुआ, गुरुकृपा से इस लिपि-आविष्कार के कार्य में सफल हुआ. इस सफलता के उत्साह ने ही मुझे इस संकेतलिपि (शार्टहैण्ड) में सर्वप्रथम पुस्तक लिखने के लिये प्रेरित किया है. 'मनुष्य जब कुछ बोलता है तो वह वैज्ञानिक रूप शब्द यानि आवाज करता है. उन्हीं शब्दों के भिन्न-भिन्न संकेत होते हैं. उन्हीं संकेतों से अनेक शब्द व वाक्य बनते हैं. वे संकेत बहुत अधिक नहीं हैं अर्थात् थोड़े से हैं. और यदि मनुष्य उन संकेतों को पहिचान ले तो फिर किसी भी भाषा में कोई क्यों नहीं बोला हो, उन शब्दों को लिपिबद्ध कर सकता है. 'मैंने इस पुस्तक में शब्दों की ध्वनि को संकेतबद्ध करने का प्रयत्न किया है और मैं समझता हूँ कि एक खास सीमा तक इसमें सफल भी हो सका हूँ. पाठकों को उपरोक्त बातों से ज्ञात हो जायगा कि यह लिपि ध्वनि को लिपिबद्ध करने का साधन है. और इसीलिए इसके द्वारा किसी भी भाषा की ध्वनि लिखी जा सकेगी. लेकिन सिर्फ ध्वनि को लिखने से ही हमारा उद्देश्य सिद्ध नहीं हो सकता. यों तो सब भाषाओं की वर्णमालाएँ ही ध्वनियों को लिखने का साधन हैं परन्तु आवश्यकता है शार्ट हैण्ड में एक विशेषता की, कि वक्ता के बोले हुए शब्दों को शीघ्रता से अंकित कर उसके मुंह से दूसरा शब्द निकलने के पहले उसको ग्रहण करने के लिये समय पर तैयार हो जाने की. इसके लिये बहुत थोड़े समय में मनुष्य को बहुत-सा कार्य करना पड़ता है. इसलिए चिह्नों के सरल होने की अति आवश्यकता है ताकि शीघ्रता पूर्वक लिखे जा सकें. इस लिपि के बद्ध करने में सरलता और शीघ्रता पूर्वक लिखे जाने वाले संकेतों की तरफ पूर्णतया लक्ष्य रखा गया है. आश्चर्य नहीं कि इस संकेतलिपि में शीघ्रता से नोट लेने वाले विद्वान् थोड़े ही समय में सैकड़ों की संख्या में पैदा हो जाएँ. Jain Edcation International For Private & Personal Use Only www.jainelibrarlorgPage Navigation
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