Book Title: Kya Dharmik Shiksha Upayogi Hai Author(s): Ramakumarishreeji Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 1
________________ - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - क्या धार्मिक शिक्षा उपयोगी है ? 10 साध्वी श्री रमाकुमारी (युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी की शिष्या) V आज अगर हम अन्तस्तल की गहराई में उतरकर देखें तो पायेगे कि हमारा शैक्षणिक स्तर ही बदल गया। हमारी मान्यताएँ बदल गईं, हमारी धारणाएँ बदल गई, हमारे सोचने-समझने का ढंग ही पूर्णतः बदल गया है। विज्ञान ने हमारी आध्यात्मिक आस्था ही छीन ली है। ऐसे जटिलतावादी युग में व्यक्ति आस्थाहीन व मूल्यहीन बनता जा रहा है। यह परिस्थिति छात्र जीवन के लिए दुःखद, भयावह व निराशाजन्य प्रतीत हो रही है। जहाँ देखें वहीं कुहरा ही कुहरा दृष्टिगत हो रहा है। ऐसे अन्धकारग्रसित युग में छात्र अपने जीवन का भविष्य निर्धारण करने में सर्वथा निरुपाय प्रतीत होता है। उसे अपने जीवन रथ का धुरी को कैसे प्रवर्तन करना चाहिए और किस दिशा में नियोजित करना चाहिए इस तथ्य से वह पूर्णतः अनभिज्ञ है। समुज्ज्वल भविष्य के क्षणों के दर्शन में भी वह अपने आप को असमर्थ समझ रहा है। इसीलिए ही तो आधुनिक शिक्षा-प्रणाली से छात्रों का जीवन व्यवहार उच्छृखल व अनुशासनहीन-सा बनता जा रहा है। प्रश्न है--ऐसा क्यों हो रहा है ? इसका मुख्य कारण है- जीवन में धार्मिक शिक्षा का अभाव । चिन्तन के दर्पण में अवलोकन करें तो प्रतिबिम्ब धूमिल-सा नजर आता है। आत्मा का जो पवित्र विशुद्ध रूप है वह हमारे समक्ष प्रस्तुत नहीं हो पाता। अगर जीवन व्यवहार में धार्मिकता का समावेश हो जाये तो नि:सन्देह विद्यार्थी जीवन के रंग-मंच में आमूल-चूल परिवर्तन की स्वणिम आभा प्रस्फुटित हो जाए। जीवन का वह सुनहरा प्रभात नये उल्लास से भर जाये । प्रामाणिक नैतिक जीवन ही समुज्ज्वल भविष्य की रीढ़ है। । अत: प्रत्येक विद्यार्थी को अपने जीवन को प्रकाशमय बनाने की उत्कट इच्छा हो तो उसे चाहिए कि वह इस श्लोक के प्रत्येक चरण का अपने जीवन के बहुमूल्य क्षणों के साथ तादात्म्य संस्थापित करे विनयः शासने मूलं, विनीत: संयतो भवेत् । विनयाद् विप्रमुक्तस्य, कुतो धर्मः कुतो जयः ॥११॥ विद्यार्थी विनय की परम्परा को कैसे नजर-अन्दाज कर देता है, कुछ समझ में नहीं आता है। आप पढ़ेंगे एक दासी के पुत्र का जीवन वृत्त । जिसने विनय के प्रभाव से ही बहुत कुछ ज्ञान अजित किया था। वह कथा प्रसग इस प्रकार है ___ जाबाल नामक एक दासी थी। उसको कुक्षि से एक पुत्र पैदा हुआ। उसका नाम था सत्यकाम । उसके मन में अध्ययन करने की तीव्र उत्कण्ठा थी। पर वह निर्धन था। बिना फीस कौन पढ़ाए ! पूर्वजन्मगत धार्मिक विचारों की उस पर बहुत सुन्दर प्रतिक्रिया थी। जैसे ही वह शैशव की दहलीज को पार करता है उसके मन में धर्म-शास्त्र के अध्ययन की एक तड़प जागती है। वह इन्हीं विचारों की उधेड़-बुन में डुबकियाँ लगाने लगता है। एक दिन उसने अपने मन में दृढ़ निश्चय किया और शुभ मुहूर्त देखकर सत्यकाम महर्षि गौतम की सन्निधि में उपस्थित हुआ। विनयपूर्वक प्रणाम कर अपनी हृदयगत भावना को अभिव्यक्त कर प्रशान्त मुद्रा में बैठ गया। महर्षि गौतम ने पूछातुमकौन हो? तुम्हारा गोत्र क्या है ? सत्यकाम ने प्रत्युत्तर में कहा- प्रभो ! मेरा नाम सत्यकाम है। मैं अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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