Book Title: Kundaliniyoga Ek Vishleshan Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Z_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf View full book textPage 7
________________ साध्वीरलपुष्टावती अभिनन्दन क्रन्थ meenarImamarpamernamUEENawsmos-ananewrapRDURINCINGANAGER E OEMitrhitrrrrrTITHI साधना की सफलता का आदि-बिन्दु भी धैर्य है और अन्तिम बिन्दु भी धैर्य है / धैर्य के अभाव में कुछ भी सम्भव नहीं होता। आज का आदमी अधैर्य के दौर से गुजर रहा है। वह इतना अधीर है कि किसी भी स्थिति में वह धैर्य नहीं रख पाता / बीमार है। डॉक्टर दवाई देता है। एक घण्टे में यदि आराम नहीं होता है तो डॉक्टर बदल देता है / दिन में पाँच डॉक्टर बदल देता है / बड़ी विकट स्थिति है / साधना में अधैर्य हानिप्रद होता है / वह किसी साधना को सफल नहीं होने देता। कुण्डलिनी जागरण की इस प्रक्रिया में धैर्य की बात बहुत महत्त्वपूर्ण है / इसमें साधना-काल लम्बा होता है / उस दीर्घकाल को धैर्य से ही पूरा किया जा सकता है / धीरे-धीरे साधना परिपक्व होती है और जब तैजस जागरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है, तब सारे खतरे टल जाते हैं। तेजोलेश्या के निग्रह-अनुग्रह स्वरूप के विकास के स्रोतों की यह संक्षिप्त जानकारी है। उसका जो आनन्दात्मक स्वरूप है उसके लिए विकास-स्रोत भावात्मक तेजोलेश्या की अवस्था में होने वाली चित्त-वृत्तियाँ हैं / चित्त-वृत्तियों की निर्मलता के बिना तेजोलेश्या के विकास का प्रयत्न खतरों को निमंत्रित का प्रयत्न है। वे खतरे शारीरिक, मानसिक और चारित्रिक तीनों प्रकार के हो सकते हैं। जो साधना के द्वारा तेजोलेपया को प्राप्त कर लेता है वह सहज आनन्द की अनुभूति में चला जाता है / इस अवस्था में विषय-वासना और आकांक्षा की सहज निवृत्ति हो जाती है। इसीलिए इस अवस्था को "सुखासिका" (सुख में रहना) कहा जाता है। विशिष्ट ध्यान योग की साधना करने वाला एक वर्ष में इतनी तेजोलेश्या को उपलब्ध होता है कि उससे उत्कृष्टतम भौतिक सुखों की अनुभूति अतिक्रान्त हो जाती है / उस साधक को इतना सहज सुख प्राप्त होता है जो किसी भी भौतिक पदार्थ से प्राप्त नहीं हो सकता। योग की उपयोगिता जैसे-जैसे बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे उस विषय में जिज्ञासाएँ भी बढ़ती जा रही हैं / योग की चर्चा में कुण्डलिनी का सर्वोपरि महत्त्व है / बहुत लोग पूछते हैं कि जैन योग में कुण्डलिनी सम्मत है या नहीं? यदि वह एक वास्तविकता है तो फिर कोई भी योग-परम्परा उसे अस्वीकृत कैसे कर सकती है ? वह कोई सैद्धान्तिक मान्यता नहीं है, किन्तु एक यथार्थ शक्ति है / उसे अस्वीकृत करने का प्रश्न नहीं हो सकता। जैन परम्परा के प्राचीन साहित्य में कुण्डलिनी शब्द का प्रयोग नहीं मिलता। उत्तरवर्ती साहित्य में इसका प्रयोग मिलता है। वह तन्त्रशास्त्र और हठयोग का प्रभाव है। आगम और उसके व्याख्या साहित्य में कुण्डलिनी का नाम तेजोलेश्या है / इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि हठयोग में कुण्डलिनी का जो वर्णन है उसकी तुलना तेजोलेश्या से की जा सकती है। अग्नि ज्वाला के समान लाल वर्ण वाले पुद्गलों के योग से होने वाली चैतन्य की परिणति का नाम तेजोलेश्या है / यह तप की विभूति से होने वाली तेजस्विता है / कुण्डलिनीयोग : एक विश्लेषण : युवाचार्य महाप्रज्ञ | 307 NITINGS ANSA EmatiPage Navigation
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