Book Title: Kshama
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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Page 1
________________ 15.17 नवम्बर 2006 जिनवाणी, 269 क्षमा डॉ. धर्मचन्द जैन प्रतिक्रमण में हम सब जीवों को क्षमा करने एवं उनसे क्षमायाचना करने हेतु एक गाथा बोलते हैं खामेमि सव्ये जीवा, सब्वे जीवा खमन्तु मे। मित्ती मे सवभूएन्सु, वे मज्झं न केणइ ।। मैं सब जीवों को क्षमा करता हूँ, सब जीव मुझे क्षमा करें। मेरी सब जीवों के प्रति मैत्री है तथा किसी के प्रति मेरा वैर नहीं है। क्षमा जीवन का अमृत है। क्षमा के दो रूप हैं- क्षमा करना एवं क्षमा माँगना। अन्य के द्वारा प्रतिकूल स्थिति उत्पन्न किए जाने पर भी उसके प्रति दुर्भाव उत्पन्न न करना तथा उत्पन्न हो गया है तो उसका निवारण करना क्षमा करना' है तथा कृत अपराध के लिए दूसरे के समक्ष निरभिमानता पूर्वक खेद प्रकट करना एवं कलुषता को दूर करने हेतु निवेदन करना क्षमायाचना है। वास्तव में आत्म-निर्मलता के साथ क्षमा किया जाय एवं क्षमा याचना की जाए तो उससे आत्म-शोधन स्वतः हो जाता है। 'क्षमा' एक ऐसा उपाय है जिसमें धन की आवश्यकता नहीं होती, श्रम एवं शक्ति की आवश्यकता नहीं होती । बिना पैसे का पारस्परिक प्रेम एवं आत्मीयता का यह उपाय व्यक्ति को शर्तिया तनावरहित एवं निर्दोष बनाता है। क्षमाभाव से कोई कमजोर एवं छोटा नहीं होता, अपितु दूसरों की नजरों में भी महान् बनता वैर-विरोध की अग्नि से झुलसते चित्त को यदि शान्ति एवं शीतलता का अनुभव कराना है तो उसका अमोघ उपाय है- 'क्षमा'। उपाय अमोघ भी है और सरल भी, किन्तु उस व्यक्ति के लिए अत्यन्त कठिन है जो प्रतिकार या बदला लेने की ठान चुका है। वह प्रतिकार को अपनी शान्ति का एवं दूसरे की भूल का फल प्रदान करने का सर्वोत्तम उपाय समझता है। किन्तु प्रतिकार का भाव व्यक्ति को जहाँ अविवेकी एवं हिंसक बना देता है वहाँ उसका परिणाम भी निर्विघ्न नहीं होता। जिससे बदला लिया जाता है, वह पुनः बदला लेने की ठान सकता है। इस प्रकार प्रतिकार का भी चक्र चलने लगता है। इसीलिए भगवान महावीर ने ज्ञाताधर्मकथा सूत्र में कहा है रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं चेव पक्खालिज्जमाणस्स णस्थि सोही। अर्थात् खून से सने वस्त्र को खून से धोए जाने पर उसकी शुद्धि नहीं होती। इसी प्रकार प्रतिकार या हिंसा से हिंसा के भाव की समाप्ति नहीं होती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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