Book Title: Krut Karit aur Anumodan me se Adhik Pap Kisme
Author(s): Nanesh Acharya
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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Page 7
________________ ||15,17 नवम्बर 2006 | जिनवाणी कोई यह प्रश्न कर सकता है कि जब पाप का कारण अविवेक ही ठहरा तब यदि करने वाला और जिससे कराया जावे वे दोनों ही विवेकी और उस दशा में स्वयं न करके उस दूसरे से जो कि विवेकी है, कराया जाय तो क्या आपत्ति है? उस दशा में तो कराने में ज्यादा पाप न होगा? फिर चाहे कराया जावे या किया जावे तो समान ही होगा? इसका उत्तर यह है कि विवेक की अपेक्षा तो कराने में ज्यादा पाप नहीं लगेगा, लेकिन कराने में करने की अपेक्षा जो द्रव्य-क्षेत्र-काल ज्यादा खुला हुआ है, उसका पाप तो ज्यादा लगेगा ही। इस विषय में विशेषतः विवेक और मन के भावों पर ही अधिक आश्रित रहना पड़ता है। एक प्रश्न यह हो सकता है कि गृहस्थ जब सामायिक में बैठता है तब वह करने-कराने का ही पाप त्यागता है। जब अनुमोदना का पाप ज्यादा है तो उसका त्याग क्यों नहीं करता? बड़े पाप का त्याग क्यों नहीं किया जाता? इसका उत्तर यह है कि अनुमोदना का पाप त्यागने की शक्ति न होने के कारण ही इसका त्याग नहीं कराया जाता। प्रत्येक काम अपनी शक्ति के अनुसार ही होता है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि करने-कराने की अपेक्षा अनुमोदना का पाप छोटा है। अतएव एकान्त आग्रह को छोड़कर तटस्थ भाव से वस्तु तत्त्व का विचार करना चाहिये। - 'जिणधम्मो' पुस्तक से साभार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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