Book Title: Kavi Hariraj krut Prakrit Malaya sundari chariyam Author(s): Prem Suman Jain Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf View full book textPage 4
________________ afa हरिराजकृत प्राकृत मलयसुंदरीचरियं कवि परिचय - इस पाण्डुलिपि में, जो चार स्तवक या पडल हैं बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं । चारों में कवि ने अपने सम्बन्ध के आधार पर प्राकृत मलयसुन्दरी के रचनाकार के होता है । उनमें जो पुष्पिकाएँ दी गयी हैं वे कुछ नई बातें बतायी हैं । इस सामग्री सम्बन्ध में निम्न विवरण उपलब्ध कवि नाम - ग्रन्थकार ने स्वयं को हरिराज, कवि हरिराज, हरि कवि आदि नाम से अभिहित किया है । प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय पडलं की पुष्पिका लगभग समान है । यथा सुश्रावकश्रीहेमराजार्थे कवि हरिराजविरचिते ज्ञानरत्नोपाख्याने सुन्दरीचरिते पाणिग्रहण वण्णनो नाम द्वीती स्तवकः समाप्तः । इससे स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ का कर्ता कवि हरिराज है । उसने प्रथम पुष्पिका में स्वयं को हरिराज एवं तृतीय पडल में हरी कवि भी कहा है अन्तिम प्रशस्ति में हरीराज उच्चारण है । अन्त में हेमप्रभआर्य नाम भी कवि के लिए या उसके गुरु के लिए प्रयुक्त लगता है हेम पहरिया कियं पडलए सुक्खं चउहंकारा । गाथा ७६७। इसका अर्थ 'हेमप्रभ आर्य के द्वारा ( अथवा के लिए) इस चतुर्थ पडल में सुख का वर्णन किया गया' यदि किया जाय तो व्याकरण की दृष्टि से 'हेमप्पहरिया कियं' शुद्ध पाठ नहीं प्रतीत होता है । अन्य प्रति के मिलने पर इसका निर्णय हो सकेगा । Jain Education International मलया मध्ययुगीन जैन साहित्य में हरिराज या हरि कवि नाम सुज्ञात नहीं रहा है । फिर भी जन ग्रन्थ भण्डारों की ग्रंथसूचियों में हरिकवि का कुछ विवरण प्राप्त है । १४ वीं शताब्दी में उत्पन्न वज्रसेन के शिष्य हरि मुनि ने 'कर्पूरप्रकर' नामक सुभाषित ग्रन्थ संस्कृत में प्रणीत किया है । इस हरिमुनि की अन्य रचना नेमचरित भी है । इनके कर्पूरकर की एक प्रति वि० सं० १६५० की उपलब्ध है ।" इस हरिमुनि को 'हरिकवि' भी कहा गया है। अतः यह स्वीकार किया जा सकता है कि कर्पूरप्रकर के हरिकवि ही इस मलयसुंदरीचरियं ( प्राकृत ) के हरिकवि या हरिराज हों । प्राकृत की यह रचना भी वि० सं० १६२८ में लिखी गयी है । अतः सम्भव है १६ वीं शताब्दी के आस-पास हरिकवि या हरिराज का समय रहा हो । १. जे अत्थे हरिराइ गाहसरसे संखेइ वित्थारिओ । गा० १३१ २. आएसो कमलासिणी हरी कवि कीया कहा सुंदरी । मस्सग्गह पुवदिसि हरे से संखेचि वित्थारिया || गा० ५२९ ३. पुव्वकहा अनुसरि रइयं हरीराज मलयावरचरियं । गा० ७९६ ४. देसाई, एम० डी०; जैनसाहित्यनो इतिहास, पृ० ३३६ टिप्पण ३६६ ५. मुनि पुण्यविजय; कैटलाग आफ संस्कृत एण्ड प्राकृत मैनुस्क्रिप्ट, पार्ट IV (१९६८), पृ० १५६ ६. मुनि पुण्यविजय, जैसलमेर कलेक्शन, अहमदाबाद (१९७२), पृ० २०२, २५९ एवं २६० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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