Book Title: Kashay Samikshan
Author(s): Shantilal Jaroli
Publisher: Z_Ashtdashi_012049.pdf

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Page 3
________________ विदित हो जाते हैं पर यह सभी संभव है जबकि विशिष्ट दृष्टि का ऐसे हैं जो उसे अपनी क्षमतानुसार आगे बढ़ने नहीं देते। बाधक सत्कार सम्मानपूर्वक जिज्ञासापूर्वक श्रद्धान्वित होकर दीर्घ दिन तत्वों में लोभ कषाय प्रमुख रूप से बाधक है। यह अध:पतन तक, अनवरत अभ्यास किया जाए। इस तरह मान पर नियंत्रण कराने वाला लोभ अग्नि के समान है। अग्नि में ज्यों-ज्यों ईंधन संभव हो सकता है। डाला जाता है त्यों-त्यों अग्नि बढ़ती चली जाती है वैसे ही लोभ माया - माया आंतरिक जीवन का कुटील रूप है जो चेतना को को शांत करते हैं। जैसे-जैसे जड़ वस्तु का संचय किया जाता छलना के जाल में आबद्ध करता रहता है। माया या छल कपट है वैसे-वैसे लोभ बढ़ता ही चला जाता है। मनुष्य को यदि चार जिसकी वास्तविक सत्ता न हो किन्तु प्रतीति होती हो उसी को कोस के लम्बे चौड़े दो कुएं स्वर्ण, हीरे, मोती से भरे हुए भी मिल माया कहते हैं। मोह अथवा भ्रम की उत्पति माया का कार्य है। जाएं तो भी तीसरे कुएं की इच्छा करेगा। उदर को कब्र की माया एक आभास है. माया परमात्मा को भ्रांति उत्पन्न करने मिट्टी के सिवाय कोई भी भरने में समर्थ नहीं है लोभी व्यक्ति वाली एक शक्ति है। मन और इन्द्रियां इसके रूप हैं। माया की धनोपार्जन का कोई तरीका क्यों न हो उसे अपनाने में संकोच शक्ति से ही जगत वास्तविक प्रतीत होता है। असंभव को संभव नहीं करता है। लोभी मनुष्य माता-पिता, पुत्र, भाई, स्वामी और करना माया का विचित्र स्वभाव है किन्तु ज्ञान के उदय होने पर मित्र के साथ भी विद्रोह कर वैठता है। अदालत में झूठी गवाही माया अदृश्य हो जाती है। माया एक प्रकार का जादू है। जब देता है, गरीबों की धरोहर दबा लेता है। दुनियां का नीच से नीच तक आप मायावी को जान लेते हैं तो आपका आश्चर्य समाप्त / हो जाता है और उसके कार्य असत्य हो जाते हैं। आत्म-ज्ञान से गई है। माया अदृश्य हो जाती है। जगत् के मोह जाल में बांध रखने क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाश करता वाली माया ही है। माया सत्य को ढक देती है और असत्य को है, माया मित्रता का नाश करती है और लोभ सभी सद्गुणों का सत्य-सा प्रकट कर देती है। यह दुख को सुख और अनात्मा को नाश करता है। क्रोध, मान, माया, कषाय तो एक-एक गुण हैं आत्मा प्रदर्शित कर देती है, जिस प्रकार अंधेरे में पड़ी रस्सी को और लोभ सभी पापों की आधारशिला है। आत्मिक-विकास की भ्रमवश सर्प समझ लेते है, वैसा ही कार्य माया का है। चाह रखने वाले इस भव, पर भव में सुख के अभिलाषी व्यक्ति माया ऐसा शल्य है जो आत्मा को व्रतधारी नहीं बनने देता को लोभ कषाय से सदैव बचते रहना चाहिए। भगवान महावीर है क्योंकि वति का निशल्य होना अनिवार्य है। माया इस लोक ने ढाई हजार साल पहले जो बातें कही थी वे आज भी प्रासंगिक में तो अपयश देती है परन्त परलोक में भी दर्गति देती है। यदि हैं। गरीब से ज्यादा अमीर के मन में लोभवृति है। गरीब सौ माया कषाय को नष्ट करना है तो वह ऋजुता और सरलता के रुपया चाहेगा तो अमीर लाख रुपये के संग्रह का लोभ करेगा। भाव अपनाने से ही नष्ट हो सकती है। अपनी जरुरत से अधिक चाह करना ही लोभ है। 'धर्मविसए वि सुहमा, माया होइ अणत्थाय' अर्थात् धर्म अत: समीक्षण ध्यान द्वारा लोभ पर नियंत्रण पा सकते हैं। के विषय में की हई सक्ष्म माया भी अनर्थ का कारण बनती है। साधक आत्म-शुद्धि हेतु साधना मे तन्मय रहे तो लोभ को भी अत: बुद्धिमान पुरुषों को चाहिए कि माया के स्वरूप का समीक्षण प्रक्रिया से तितर-बितर करके नष्ट करने लगते हैं। भलीभांति अवलोकन कर बाहरी प्रसाधनों में अपनी अमूल्य अत: निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते हैं कि समीक्षण शक्ति का अपव्यय न करें किन्तु बाहरी प्रसाधनों के लिए ध्यान द्वारा अपने जीवन की हर क्रिया का समीक्षण कर कषायों समीक्षण का दृष्टि पूर्वक चिंतन करें कि इस चैतन्य देव ने बाहरी से मुक्त तथा शान्तिपूर्ण जीवन जी सकते हैं। तनावों से मुक्त हो प्रसाधनों में कितनी जिंदगियां बिताई हैं। बाहरी प्रसाधन का आनंद सकते हैं। कषायों का गहराई से समीक्षण ध्यान कर हम बहिर्रात्मा वास्तविक नहीं है। जब तक माया का समीक्षण ध्यान नहीं होगा से अन्तरात्मा और अन्तरात्मा से परमात्मा बन सकते हैं। तब तक जीवन की छवि उभर नहीं पायेगी। अत: समताभाव की समस्त प्राणियों को एवं विशेषत: मानव जाति के मूर्छा को समताभाव से विलग करने पर यथा समीक्षण दृष्टि से तनावग्रस्त मस्तिष्क को जब कभी शांति मिलने का प्रसंग आयेगा चिंतन कर माया पर नियंत्रण पाया जा सकता है। एवं इस लोक तथा परलोक को भव्य एवं दिव्य बनाने का समय लोभ :- लोभो सव्वविणासणो - अर्थात् लोभ सभी सद्गुणों उपलब्भ होगा। तब वह इसी समीक्षण ध्यान एवं समीक्षण दृष्टि के का नाश कर देता है। 'इच्छालोभिते मतिग्गस्स पलिम, माध्यम से ही आयेगा। यह निर्विवाद और त्रिकालाबाधित सत्य है. अर्थात् लोभ मुक्ति पथ का अवरोधक है। ऐसा कहा जाए तो भी अतिशयोक्ति नहीं है। प्रत्येक भव्य आत्मा में परमात्मा बनने की शक्ति है और परमात्म-मार्ग में बढ़ने का प्रयास भी करती है कुछ बाधक तत्व एसाप 0 अष्टदशी / 1560 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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