Book Title: Karmwad Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Z_Jayantsensuri_Abhinandan_Granth_012046.pdf View full book textPage 3
________________ आकांक्षा और आत्मविस्मृति - ये तीनों आत्म-पर्याय भी कर्म के कर्ता का निर्माण करता है तब कर्म-शरीर से लेकर कषाय तक के सारे हैं। किन्तु वास्तव में ये सब कषाय के उपजीवी हैं। मानसिक, वाचिक वलय टूटने लग जाते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र ने बहुत ही सत्य कहा और कायिक प्रवृत्ति भी कर्म की कर्ता है। किन्तु उसमें कर्म-पुद्गलों है - को बांधकर रखने की क्षमता नहीं है। कषाय के क्षीण हो जाने पर भेदविज्ञानतः सिद्धाः, सिद्धा ये किल केचन / केवल प्रवृत्ति के द्वारा जो कर्म-पुद्गल का प्रवाह आता है, वह पहले तस्येवाभावतो बद्धाः, बद्धा ये किल केचन // क्षण में कर्म-शरीर से जुड़ता है, दूसरे क्षण में मुक्त होकर तीसरे - इस संसार में वे ही लोग कर्म से बद्ध हैं, जिनमें भेद-विज्ञान क्षण में निर्जीर्ण हो जाता है। ठीक इसी तरह जैसे सूखी रेत भीत का अभाव है। आत्मा की उपलब्धि उन्हीं व्यक्तियों को हुई है, जिनका पर डाली गई, भीत का स्पर्श किया और नीचे गिर गई। भेद-विज्ञान सिद्ध हो गया, अचेतन से चेतन की सत्ता अनुभव में आ _ कर्म की तीन अवस्थाएं होती हैं - स्पृष्ट, बद्ध और बद्ध-स्पृष्ट। गई। कषाय का वलय टूट जाता है तब कोरी प्रवृत्ति से कर्म आत्मा से ऐसा करते ही कर्म का मूल हिल उठता है। जिसने अचेतन स्पृष्ट होते हैं। कर्म का दीर्घकालीन या प्रगाढ़ बंध कषाय के होने पर और चेतन का भेद समझ लिया उसने कर्म और कषाय को आत्मा ही होता है। हमारी बहुत सारी अनुभूतियां कषाय-चेतना की अनुभूतियां से भित्र समझ लिया। समझ कर्म के मूल स्रोत पर प्रहार करती है। हैं। आवेश, अहंकार, प्रवंचना, लालसा - ये सब कषाय की उर्मियां जिस कषाय से कर्म आ रहे हैं, उसके मूल पर कुठाराघात करती है। हैं। भय, शोक, घृणा, वासना - ये सब कषाय की उपजीवी उर्मियां कर्म-बंधन को तोड़ने का मूल-हेतु भेद का विज्ञान है, तो हैं। इन उर्मियों की अनुभूति के क्षण क्षुब्ध और उत्तेजनापूर्ण होते हैं। कर्म-बंध का मूल हेतु भेद का अविज्ञान है। आचार्य अमृतचन्द्र की जिस क्षण हम केवल चेतना की अनुभूति करते हैं, वह शांत-कषाय भाषा को उलटकर कहा जा सकता है - का क्षण होता है। जिन क्षणों में हम संवेदन करते हैं, उनमें प्रत्यक्षतः भेदाविज्ञानतो बद्धाः, बद्धा ये किल केचन / या परोक्षतः चेतना कषाय-मिश्रित होती है। तस्यैवाभावतः सिद्धाः, सिद्धा ये किल केचन // सन्त रबिया के घर एक फकीर आया। उसने मेज के पास पड़ी - इस संसार में वे ही लोग कर्म से बद्ध हैं जिनमें भेद-विज्ञान पुस्तक को देखा। उसके पन्ने उलटने शुरु किए। एक पने में लिखा। का अभाव है। आत्मा की उपलब्धि उन्हीं व्यक्तियों को हुई है जिनका था - "शैतान से नफरत करो" - रबिया ने उसे काट दिया। फकीर भेद-विज्ञान सिद्ध हो गया, अचेतन से चेतन की सत्ता अनुभव में आ बोला, “यह क्या?" - सन्त रबिया ने कहा, "यह मैने काटा।" / फकीर ने पूछा, 'क्यों?' रबिया ने कहा, “अच्छा नहीं लगा।" मूल आत्मा और उसके परिपार्श्व में होने वाले वलयों का "यह कैसे हो सकता है कि पवित्र पुस्तक की बात अच्छी न भेद-ज्ञान जैसे-जैसे स्पष्ट होता चला जाता है, वैसे-वैसे कर्मबंधन लगे? क्या यह सही नहीं है?" - फकीर ने पूछा। सन्त रबिया ने शिथिल होता चला जाता है। जिन्हें भेद-ज्ञान नहीं होता, मूल चेतना कहा, “एक दिन मुझे भी सही लगता था, किन्तु आज लगता है कि और चेतना के वलयों की एकता की अनुभूति होती है, उनका बंधन सही नहीं है।" तीव होता चला जाता है। कर्म पुद्गल है और अचेतन है। अचेतन __“वह कैसे?" - फकीर ने पूछा। चेतन के साथ एक रस नहीं हो सकता। हमारी कषाय-आत्मा ही सन्त रबिया ने कहा, जब तक मेरा प्रेम जाग्रत नहीं था. मेरी कर्म-शरीर के माध्यम से उसे एक रस करती है। मुक्त आत्मा के प्रेम की आंख खुली नहीं थी, मुझे भी लगता था कि शैतान से साथ-साथ पुद्गल एक रस नहीं होता, क्योंकि उसमें केवल शुद्ध नफरत करो, प्यार नहीं - यह वाक्य बहुत सही है। किन्तु अब मैं चैतन्य का अनुभूति होती है। शुद्ध चैतन्य का अनुभूति का क्षण क्या करूं? मेरी प्रेम की आंख खुल गई है। अब घृणा करने के कर्म-शरीर की विद्यमानता में “संवर" - कर्म-पुद्गलों के सम्बन्ध को कम-शरार का विद्यमानता म सवर - कम-पुद्गला क लिए मेरे पास कुछ भी नहीं बचा है। मैं घृणा कर नहीं सकता। रोकने वाला और उसके (कर्म-शरीर के) अभाव में आत्मा का स्वरूप प्रेम की आंख यह भेद करना नहीं जानती कि इसके साथ प्रेम करो होता है। कषाय-मिश्रित चैतन्य की अनुभूति का क्षण आश्रव है। वह और इसके साथ घृणा।" कर्म-पुद्गलों को आकर्षित करता है। यहां जातीय-सूत्र कार्य करता हम जब कषाय-चेतना में होते हैं तब किसी को प्रिय मानते हैं. है। सजातीय सजातीय को खींचता है। कषाय-चेतना की परिणतियां और किसी को अप्रिय। किसी को अनुकूल मानते हैं और किसी को पुद्गल-मिश्रित हैं। पद्गल पुद्गल को टानता है। यह तथ्य हमारी प्रतिकूल। हमारी कषाय-चेतना शान्त होती है, तब ये सब विकल्प समझ में आ जाए तो हमारी आत्म-साधना की भूमिका बहुत सशक्त समाप्त हो जाते हैं। फिर कोरा ज्ञान ही हमारे सामने शेष रहता है। हो जाती है। हम अधिक से अधिक शुद्ध चैतन्य के क्षणों में रहने उसमें न कोई प्रिय होता है और न कोई अप्रिय। न कोई इष्ट होता का अभ्यास करें जहां कोरा ज्ञान हो संवेदन न हो। यह साधना की है और न कोई अनिष्ट। न कोई अनकल होता है और न कोई सर्वोच्च भूमिका है। इसीलिए जैन आचार्यों ने ध्यान के लिए "शद्ध प्रतिकूल। इस स्थिति में कर्म का बंध नहीं होता। कषाय-चेतना पर उपयोग” शब्द का प्रयोग किया है। “शुद्ध उपयोग” अर्थात् केवल पहला प्रहार तब होता है, जब भेद-ज्ञान का विवेक जाग्रत होता है। चैतन्य की अनुभूति। साधना के अभाव में कर्म का प्रगाढ़ बंध होता आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न है - यह विवेक जब अपने वलय है और साधना के द्वारा उसकी ग्रन्थि का भेदन होता है। इस दृष्टि गई। श्रीमद् जयंतसेनसरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना 13 पर के छिद्र न देख तू, अपनी कमियो देख / जयन्तसेन विमल सदा, लगे लेख पर मेख // ww.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use OnlyPage Navigation
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