Book Title: Karmvad aur Adhunik Chintan Author(s): Devendra Kumar Jain Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf View full book textPage 1
________________ ४२ कर्मवाद और आधुनिक चितन - डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन कर्मवाद को सिद्धान्त माना जाए या दर्शन, इसमें मतभेद हो सकता है । मैं उसे एक वाद या विचार मानता हूँ, क्योंकि वह जड़ और चेतन के बंध और मोक्ष की प्रक्रिया का विचार करता है। विकास की प्रारम्भिक स्थितियाँ पार कर, जब मानव जाति ने सामाजिक जीवन शुरू किया और आर्थिक तथा राजनैतिक दृष्टियों से उसमें ठहराव आया तो भाषा के साथ उसमें विचार चेतना विकसित हुई। सृष्टि और जन्म-मृत्यु के रहस्यों को जानने की तीव्र इच्छा में कई प्रश्न खड़े कर दिए । जैसे यह सृष्टि अपने आप बनी, या किसी ने इसे बनाया ? उसका कारोबार स्वतः चल रहा है, या वह किसी अदृश्य शक्ति से नियंत्रित है ? जीव क्या है, कहाँ से आता है, और कहाँ जाता है ? वह स्वतंत्र तात्त्विक इकाई है, या कई तत्त्वों का मिश्रण है ? उसमें इच्छाएँ क्यों पैदा होती हैं, वे अपने आप पैदा होती हैं या कोई पैदा करता है ? आहार, निद्रा, भय और मैथुन की जैविक आवश्यकताएँ क्यों जीव के साथ जुड़ी हैं ? आदमी इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जितने उपकरण जुटाता है, वे उतनी ही फैल-फैलाती जाती हैं, पूर्ति के संतोष के स्थान पर अपूर्ति का असंतोष तीव्रतर होता जाता है, पूर्ति के साधनों की होड़ में शोषण की सभ्यता शुरू हो जातो है । उसने जानना चाहा कि क्या आहार, निद्रा की दैनिक झंझटों वाले तथा जन्म-मृत्यु की काराओं में बंद जीवन के स्थान पर ऐसा जीवन पाया जा सकता है, जहाँ सब कुछ अनंत हो, प्रचुर हो, स्वकेन्द्रित हो, आनन्दमय हो ? इस प्रकार अनंत और शाश्वत जीवन की खोज में मनुष्य ने पाया कि इच्छामय जीवन से छुटकारे के बाद ही, शाश्वत जीवन पाया जा सकता है। अपने विचारों को निश्चित दिशा देने के लिए उसने कुछ पूर्व कल्पनाएँ कीं। किसी ने माना कि सृष्टि और जीव किसी नियंता के अधीन हैं, वही इनसे मुक्ति दिला सकता है, इसलिए उसका साक्षात्कार जरूरी है । दूसरे ने माना कि यह सृष्टि एक सनातन प्रवाह है जिसका न आदि है और न अंत । प्रवाह के कारणों को रोक देने से, प्रात्मा प्रवाह से मुक्त होकर अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है । कुछ ने यह माना कि आत्मा कुछ और नहीं, कई तत्त्वों के मेल से बनी इच्छा को ज्वाला है, दीपक की लौ की तरह उसका शांत हो जाना ही उसकी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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