Book Title: Karmkshay aur Pravrutti Author(s): Kishorlal Mashruvala Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf View full book textPage 1
________________ ३५ | कर्मक्षय और प्रवृत्ति श्री किशोरलाल मश्रुवाला • एक सज्जन मित्र लिखते हैं-"कुछ लोग कहते हैं कि कर्म का सम्पूर्ण क्षय हुए बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती, और कर्म से निवृत्त हुए बिना कर्म क्षय की सम्भावना नहीं है। इसलिये निवृत्ति मार्ग ही आत्मज्ञान अथवा मोक्ष का मार्ग है। क्योंकि जो भी कर्म किया जाता है, उसका फल अवश्य मिलता है। अर्थात् मनुष्य जब तक कर्म में प्रवृत्त रहेगा तब तक वह चाहे अनासक्ति से कर्म करता हो तो भी कर्मफल के भार से मुक्त नहीं हो सकता। इससे कर्म बन्धन का आवरण हटने के बदले उलटा घना होगा। इसके फलस्वरूप उसकी साधना खंडित होगी। लोक-कल्याण की दृष्टि से भले ही अनासक्ति वाला कर्मयोग इष्ट हो, परन्तु उससे आत्मज्ञान की साधना सफल नहीं होगी। इस विषय में में आपके विचार जानना चाहता हूँ।" मेरी नम्र राय में कर्म क्या, कर्म का बन्धन और क्षय क्या, प्रवृत्ति और निवृत्ति क्या, आत्मज्ञान और मोक्ष क्या इत्यादि की हमारी कल्पनाएं बहुत ही अस्पष्ट हैं। अतएव इस सम्बन्ध में हम उलझन में पड़ जाते हैं और साधनों में गोते लगाते रहते हैं। ___ इस सम्बन्ध में पहले हमें यह समझ लेना चाहिये कि शरीर, वाणी और मन की क्रियामात्र कर्म है। कर्म का यदि हम यह अर्थ लेते हैं तो जब तक देह है तब तक कोई भी मनुष्य कर्म करना बिलकुल छोड़ नहीं सकता। कथाओं में आता है उस तरह कोई मुनि चाहे तो वर्ष भर तक निर्विकल्प समाधि में निश्चेष्ट होकर पड़ा रहे, परन्तु जिस क्षण वह उठता उस क्षण वह कुछ न कुछ कर्म अवश्य करेगा। इसके अलावा यदि हमारी कल्पना ऐसी हो कि हमारा व्यक्तित्व देह से परे जन्म-जन्मान्तर पाने वाला जीव रूप है, तब तो देह के बिना भी वह क्रियावान रहेगा। यदि कर्म से निवृत्त हुए बिना कर्मक्षय न हो सके तो उसका यह अर्थ हुआ कि कर्मक्षय होने की कभी भी सम्भावना नहीं है। ___ इसलिये निवृत्ति अथवा निष्कर्मता का अर्थ स्थूल निष्क्रियता समझने में भूल होती है। निष्कर्मता सूक्ष्म वस्तु है। वह आध्यात्मिक अर्थात् बौद्धिक, मानसिक, नैतिक भावना-विषयक और इससे भी परे बोधात्मक (संवेदनात्मक) है । क, ख, ग, घ नाम के चार व्यक्ति प, फ, ब, भ नाम के चार भूखे आदमियों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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