Book Title: Karmgranthko aur Saiddhantiko ka Matbhed
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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________________ चौथा कर्मग्रन्थ तथा पचसंग्रह ३४५ बन्धहेतुत्रों के उत्तर भेद तथा गुणस्थानों में मूल बन्धहेतुत्रों का विचार पञ्चसंग्रह में है । पृ०-१७५, नोट । सामान्य तथा विशेष बन्धहेतुत्रों का वर्णन पञ्चसंग्रह में विस्तृत है । पू०१८१, नोट | गुणस्थानों में बन्ध, उदय आदि का विचार पञ्चसंग्रह में है । पृ० - १८७, नोट । गुणस्थानों में अल्प बहुत्त्व का विचार पञ्चसंग्रह में है । पु०-१६२, नोट । कर्म के भाव पञ्चसंग्रह में हैं । पृ० - २०४, नोट । उत्तर प्रकृतियों के मूल बन्ध हेतु का विचार कर्मग्रन्थ और पञ्चसंग्रह में भिन्नभिन्न शैली का है । पृ०-२२७ । एक जीवाश्रित भावों की संख्या मूल कर्मग्रन्थ तथा मूल पञ्चसंग्रह में भिन्न नहीं है, किन्तु दोनों की व्याख्याओं में देखने योग्य है | पृ०-२२६ | चौथे कर्मग्रन्थ के कुछ विशेष स्थल जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान का पारस्परिक अन्तर । पृ० -५ | परभव की आयु बाँधने का समय विभाग अधिकारी-भेद के अनुसार किसकिस प्रकार का है ? इसका खुलासा । पृ० - २५, नोट । उदीरणा किस प्रकार के कर्म की होती है और वह कब तक हो सकती है ? इस विषय का नियम । ५० - २६, नोट । द्रव्य-लेश्या के स्वरूप के संबन्ध में कितने पक्ष हैं ? उन सबका श्राशय क्या है ? भावलेश्या क्या वस्तु है और महाभारत में, योगदर्शन में तथा गोशालक के मत में लेश्या के स्थान में कैसी कल्पना है ? इत्यादि का विचार । पृ०-३३ । थोड़ा सा विचार-भेद [ चौथा कमपन्थ शास्त्र में एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि जो इन्द्रिय-सापेक्ष प्राणियों का विभाग है वह किस अपेक्षा से ? तथा इन्द्रिय के कितने भेद-प्रभेद हैं और उनका क्या स्वरूप है ? इत्यादि का विचार । पृ० - ३६ । संज्ञा का तथा उसके भेद-प्रभेदों का स्वरूप और संज्ञित्व तथा संज्ञित्व के - व्यवहार का नियामक क्या है ? इत्यादि पर विचार | ०- - ३८ । पर्यास तथा पर्याप्त और उसके भेद आदि का स्वरूप तथा पर्याप्त का स्वरूप | पृ०-४० | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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