Book Title: Karman Sharir aur Karm Author(s): Chandanraj Mehta Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf View full book textPage 3
________________ ६२ ] [ कर्म सिद्धान्त शरीर दोनों का सम्बन्ध हमारी विभिन्न मानवीय अवस्थाओं का निर्माण करते हैं । हम समस्या और उसके समाधान को स्थूल-शरीर में खोजते हैं जबकि दोनों का मूल कर्म-शरीर में होता है । कर्म-शरीर हमारे चिंतन, भावना, संकल्प और प्रवृत्ति से प्रकम्पित होता है। प्रकम्पनकाल में वह नये परमाणुओं को ग्रहण (बन्ध) करता है और पूर्व गृहीत परमाणुओं का परित्याग (निर्जरण) करता है । हमारे श्वास और उच्छवास की गति का, हमारी प्रभा, हमारी इन्द्रियों की शक्ति का तथा वर्ण, गंध, रस और स्पर्श आदि अनुभवों के नियंत्रण का हेतु सूक्ष्म शरीर है । दूसरों को चोट पहुँचाने की हमारी क्षमता या दूसरों से चोट न खाने की हममें जो क्षमता है उसका नियंत्रण भी सूक्ष्म शरीर से ही होता है । इस तरह हमारी सम्पूर्ण शक्ति का नियामक है सूक्ष्म शरीर । प्राणी के मरने पर जब आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर धारण करती है, उस अन्तराल काल में उसके साथ दो शरीर अवश्य ही होते हैं एक तैजस और दूसरा कार्मण शरीर । उन दोनों शरीरों के माध्यम से आत्मा अन्तराल की यात्रा करती है और अपने उत्पत्ति स्थान तक पहुँचती है। नये जन्म के प्रारम्भ से ही कर्म-शरीर आहार ग्रहण करता है चाहे वह प्रोज आहार हो या ऊर्जा आहार हो । जीव संसार में होगा तब ही कर्म-शरीर होगा। इस तरह जीव आहार का उपभोग कर शीघ्र ही उसका उपयोग भी कर लेता है। स्थूल शरीर का निर्माण शुरू हो जाता है। हमारे स्थूल शरीर का ज्यों-ज्यों विकास होता है, त्यों-त्यों नाड़ियाँ बनती हैं, हड्डियाँ बनती हैं, चक्र बनते हैं, और भी अनेक प्रकार के अवयव बनते रहते हैं व इन्द्रियों का विकास होता रहता है । इस तरह के विकास का मूल स्रोत है कर्म-शरीर । कर्म-शरीर में जितने स्रोत हैं, जितने शक्ति-विकास के केन्द्र हैं, उन सबका संवेद्य है स्थूल शरीर । यदि किसी प्राणी के कर्म-शरीर में एक इन्द्रिय का विकास होता है तो स्थूल शरीर की संरचना में केवल एक इन्द्रिय का ही विकास होगा यानी केवल स्पर्श इन्द्रिय का ही विकास होगा। यदि कर्म-शरीर में एक से अधिक इन्द्रियों का विकास होता है तो स्थूल शरीर में उतनी ही इन्द्रियों के संघटन विकसित होंगे। यदि कर्म-शरीर में मन का विकास होता है तो स्थूल शरीर में भी मस्तिष्क का निर्माण होगा। जिन जीवों के कर्म-शरीर में मन का विकास नहीं है उनके न तो मेरु रज्जु होती है और न ही मस्तिष्क क्योंकि मन के विकास के साथ ही मेरु रज्जु और मस्तिष्क बनते हैं। इस प्रकार स्थूल शरीर की रचना का सारा उपक्रम सूक्ष्म-शरीर के विकास पर आधारित है । उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यदि सूक्ष्म शरीर बिम्ब है तो स्थूल शरीर उसका प्रतिबिम्ब और यदि सूक्ष्म शरीर प्रमाण है तो स्थूल शरीर उसका संवेदी प्रमाण है। इस शरीर की रचना तब तक ही होती है जब तक आत्मा कर्मों से बन्धी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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