Book Title: Karma se Nishkarma Jain Darshan ka Karma Siddhant
Author(s): Rajendrakumar Bansal
Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf

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Page 8
________________ 56 3 03080PJabal ao500amsD P6800000000000RPARos EDEOD 208-00.6.68890 उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ / / में परिणमित होता है, वह अक्षय-सौख्य अर्थात् परम आनन्द को इस क्रम में व्रत क्रिया के शुभोपयोग रूप अनेक अनेक पडाव प्राप्त करता है (प्र, सार. 195) / आत्मा का ध्यान करने वाले आते हैं और विलीन होते जाते हैं। यह तभी कार्यकारी होते हैं जब श्रमण निर्मोही, विषयों से विरक्त, मन के निरोधक, और आत्म दृष्टि शुद्धात्मा पर होती है। आत्म श्रद्धान विहीन भाव-रहित स्वभाव में स्थित होकर आत्मा का ध्यान करते हैं। ऐसी शुद्धात्मा / व्रत-क्रियाएँ निष्कर्म मार्ग में अकिंचित्कर होती हैं। आगम में कहा को प्राप्त करने वाले श्रमण सर्व घातिया कर्मों का नाशकर भी है कि 'सम्यक्त्व बिना करोड़ों वर्ष तक उग्र तप भी तपै तो भी सर्वज्ञ-सर्व दृष्टा हो जाते हैं (196.197) / और तृष्णा, अभिलाषा, बोधि की प्राप्ति नहीं होती" (दर्शन पा. 5) / इसी प्रकार चारित्र जिज्ञासा एवं संदेह रहित होकर इन्द्रियातीत अनाकुल परिपूर्ण ज्ञान / रहित ज्ञान, दर्शन रहित साधु लिंग तथा संयम रहित तप निरर्थक से समृद्ध परम आनन्द का अनुभव-ध्यान करते रहते है (198) है। (शीलपाडा भाव सहित द्रव्य लिंग होने पर कर्म का निर्जरा उनके इस परम आनन्द की तुलना में इन्द्रिय जन्य संसार-सुख / नामक कार्य होता है, केवल द्रव्य लिंग से नहीं। भाव रहित नग्नत्व अकिंचित्कर-अकार्यकारी होता है, उसी प्रकार जैसे अंधकारनाशक अकार्यकारी है। हे, धैर्यवान् मुने, निरन्तर नित्य आत्मा की भावना दृष्टि वाले को दीपक प्रयोजन हीन होता है (गाथा 67) / कर (भाव पा. 54-55) / आत्म श्रद्धान विहीन व्रत क्रियाएँ अकिंचित्कर-संक्षेप में आत्मा उपसंहार-जो व्यक्ति अपनी आत्मा को जैसा देखता है, वैसा ही के साथ कर्म-बन्ध मिथ्यात्व, असंयम, कषाय एवं योग से होता है पाता है, आत्मा को शुद्ध जानने वाला शुद्धात्मा को पाता है और जबकि कर्म से निष्कर्म का मार्ग प्रशस्त होता है ज्ञान-सूर्य के उदय अशुद्ध जानने वाला शुद्धात्मा को पाता है (स. सार 186) / कर्म से से। जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से अंधकार विलीन हो जाता है निष्कर्म होने हेतु परम पारिणामिक भाव आश्रित शुद्धात्मा का उसी प्रकार आत्मा के क्षितिज पर ज्ञान सूर्य उदित होते ही ज्ञान-ध्यान कर सभी परम सुख को प्राप्त करें, यही कामना है। मोह-अंधकार विलीन हो जाता है। निष्कर्म का सूत्र है आत्म-श्रद्धान ज्ञान और चारित्र। भेद-विज्ञान पूर्वक आत्मानुभव से आत्म श्रद्धान एवं आत्मोपलब्धि होती है, जिससे मोह ग्रंथि का क्षय होता है। पता: शुद्धात्मा के निरन्तर ध्यान रूप तप से राग-द्वेष का जनक-कारक के/ओ. ऑरियन्ट पेपर मिल्स चारित्र-मोह का क्षय होकर आत्मा परम आनन्दमय होता है। अमलाई - 484117 (म. प्र.). है दया धर्म का मूल, असूल पुराना || श्रावक नही पीता पानी कभी अनछाना ।।टेर॥ छह काया पर वह दया करे तन-मन से। दे सहायता दुखियों को तन से, धन से॥ कर तिरस्कार मारे न किसी को ताना // 1 // भूखे को भोजन प्यासे को दे पानी। रोगी को औषध दे कहलाये दानी॥ अनुकंपा द्वारा धार्मिक लाभ कमाना // 2 // दे आश्रय आश्रय-हीन दीन जो आये। बेरोजगार को काम में तुरत लगाए। गिरता हो स्तर से ऊँचा उसे उठाना // 3 // बस दयालुता का सादा अर्थ यही है। समता का सेवन करना व्यर्थ नहीं है। "मुनिपुष्कर" श्रावक ले श्रमणों का बाना // 4 // -उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि (पुष्कर-पीयूष से) गए. 00 6:00.00.00PRE-pesbes80.30 2622800000000000000000000000000003 00:9 60.0 aap लयलयरपरावण RORameliarsy VAEDDID

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